क्या राम सीता ने की थी आत्महत्या
लेखकः-राजेन्द्र कश्यप
(देश की प्रतिष्ठित वेब साइट ‘‘प्रतिवाद डाट काम’’ पर राम सीता ने की थी आत्महत्या नाम वीडियो पूरे देश व विदेश में देखा जा रहा है, जिसमें मुख्य वक्ता रमेश शर्मा जो राष्ट्रीय एकता परिषद मध्यप्रदेश के उपाध्यक्ष भी हैं।)
भोपाल। ‘‘जीवन का यथार्थ और भविष्यवाणियों का औचित्य’’ विषय पर आयोजित जनसंवेदना संस्था द्वारा संगोष्ठी मे रमेश शर्मा मुख्य वक्ता ने अपने वक्तव्य में हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ रामायण के मुख्य चरित्र भगवान श्री रामचन्द्र जी, उनकी धर्मपत्नी सीताजी एवं आयोध्या के राजा दशरथ की नयी व्याख्या में आत्महत्या करने वाला निरूपित किया है।
अपने पूर्व उद्बोधन में रामचरित्र मानस का शहरों में रामभक्तों द्वारा कराये जाने 24 घन्टे का अखण्ड पाठ की कड़ी आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह उचित नहीं है इससे पड़ोसियों को कष्ट पहुंचता है और वह रामायण का पाठ करने वालों को गालियां देते हैं। यह उचित नहीं है। भारत में ग्रामीण जन आपस में मिलने पर ‘जय राम जी ’ करते हैं। अपरिचित व्यक्ति से भी बात करते समय जय रामजी करने में संकोच नहीं करते बल्कि मृत्योपरान्त भी राम नाम का उच्चारण करते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपने प्राण त्यागते समय राम नाम का उच्चारण किया था। हिन्दू धर्म के मार्गदर्शक जगत गुरू शंकराचार्य साधु संतजन भी रामन नाम का जोर से उच्चारण को जोर देते हैं। अशिक्षित ग्रामीण जन स्वयं रामचरित्र का पाठ नहीं कर पाते हैं, इसलिये गावों में लाउड स्पीकर की आवाज दूर खेत, खलिहान तक पहुंच जाती है।
‘‘राम नाम की महिमा अपरंपार है’’। राम नाम पर देश में एक बार सत्ता परिवर्तन हो चूका है। ऐसे में मध्यप्रदेश में भाजपा पार्टी की सरकार है जिस पार्टी ने रामजन्म भूमि में राम मन्दिर निर्माण हेतु कृत संकल्पित है, उसी पार्टी के शासन काल में एक राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त श्री रमेश शर्मा अपने वक्तव्य में कहते हैं कि महाराजा दशरथ असंतुलित होकर एकस्ट्रीम में जाकर चलते फिरते दो वचन दे डालेओर अपने दो पुत्रों को वन में भटकना पड़ा। सीता को भी वनवास भुगतना पड़ा। वक्तव्य में कहा कि राम ने भी सरयू नदी में प्राण त्याग दिये यह भी आत्महत्या है।
एक धोबी के कहने पर एकस्ट्रीम में आकर राम ने अपनी पत्नी को वनवास दे दिया और उनके दो पुत्र (लव,कुश) को जीवन यापन के लिये शहरों में गाना गाकर रहना पड़ा। कुशल वक्ता शब्दजाल के प्रवीण रचयिता है। परन्तु स्पष्टतः अयोध्या राजा दशरथ एवं उनके पुत्र भगवान राम ने अत्महत्या की थी यह व्याख्या धर्म प्रेमी स्वीकार नहीं कर पायेंगे। रमेश शर्मा ने स्पष्ट कहा कि ये आत्महत्या हैं। हिन्दू धर्मानुसार आत्महत्या पाप होती है। राजा दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिये थे। सीता धरती पुत्री थीं और वह स्वयं धरती में समा गई थीं। इसी तरह राम ने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि प्राणों को ब्रह्माण्ड में चढ़ाकर प्राण त्याग दिये थे। रामचंद्र जी का जीवन संतुलित था। मर्यादा पुरूषोत्तम राम थे। उन्होंने पूरा जीवन मर्यादा में रहकर लोकतांत्रिक जनहितकारी क्रिया कलाप से युक्त जीवन व्यतीत किया।
चिन्तक विचारक रमेश शर्मा ने रामायण ओर भगवान राम की नई व्याख्या की है जो भारत के चिन्तकों की व्याख्या के बीच विरोधाभास लेकर एक आस्थाहीन संदर्भ लेकर आई है, जो भगवानराम को एक मानव रूप में कायर व्यक्तिकी भांति प्रस्तुत करने की कोशिश की है।
क्या अयोध्या के राजा दशरथ, उनके पुत्र भगवान रामचन्द्र जी ने आत्महत्या की थी और सीता जी भी ने भी आत्महत्या करके प्राण त्याग दिये थे। यह प्रश्न हिन्दुओं आस्थओं को चोट पहुंचाता है। क्या ऐसी सरकार को मध्यप्रदेश में शासन करने की अधिकारी है जिनका एक सहयोगी रामचन्द्र जी को आत्महत्या करने वाला मानता है। और क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान एवं शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री श्री लक्ष्मी कांत शर्मा जी रामायण की इसी व्याख्या से सहमत हैं।
प्रदेश ही नहीं देश भर के रामभक्तों की आस्थ को ठेस पहुंचाने के प्रयास आगे भी राजी रहेंगे। क्या मध्य प्रदेश सरकार श्री शिवराज सिंह चौहान का समर्थन ऐसी संस्थाओं और व्यक्तियों को मिलता रहेगा।
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vaishali
Tuesday, 24 May 2011
Saturday, 5 March 2011
गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। इसका जिक्र वाल्मीकि रामायण में बहुत गहराई के साथ किया गया है।
इलाहाबाद। राम के किस्से और कहानियां तो हम बचपन से सुनते आए हैं लेकिन इलाहाबाद से महज 40 किमी की दूरी पर है वो जगह जो भगवान राम के धरती पर आने की वजह बनी। ये जगह है गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। इसका जिक्र वाल्मीकि रामायण में बहुत गहराई के साथ किया गया है।
धर्मग्रंथों के अनुसार राम के जन्म से पहले इस धरती पर आसुरी शक्तियां अपने चरम पर पहुंच गई थीं। राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि सभी इनसे परेशान थे। ऐसे में किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि श्रृंगवेरपुर के श्रृंगी ऋषि ही इस समस्या से निजात दिला सकते हैं।
ऋषि श्रृंगी त्रेता युग में एक बहुत बड़े तपस्वी थे। जिनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। राजा दशरथ के अभी तक कोई पुत्र नहीं था। केवल एक पुत्री थी जिसका नाम था शांता। दशरथ के मन में जहां एक ओर आसुरी शक्तियों से छुटकारा पाने की चिंता सता रही थी वहीं अपना वंश बढ़ाने के लिए पुत्र न होने की पीड़ा भी मन में थी। ऐसे में दशरथ को ऋषि वशिष्ठ ने इन समस्याओं के निवारण के लिए श्रृंगी ऋषि की मदद लेने की सलाह दी। तब राजा दशरथ की प्रार्थना पर ऋषि श्रृंगी उनके दरबार पहुंचे।
ऋषि ने राजा दशरथ से कहा कि इन समस्त समस्याओं का एक ही हल है-पुत्रकामेष्ठी यज्ञ। इसके बाद राजा दशरथ के घर पूरे विधिविधान से पुत्रकामेष्ठी यज्ञ कराया गया और कुछ वक्त बाद दशरथ के यहां विष्णु के अवतार में भगवान राम का जन्म हुआ। पूरे बारह दिन तक चला था ये यज्ञ और इस दौरान दशरथ ऋषि श्रृंगी के तप, उनके ज्ञान और शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी ऋषि से करने का निर्णय ले लिया और तब श्रृंगी बन गए दशरथ के दामाद।
माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव भी मानी जाती है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने केवट से गंगा पार कराने की मांग की थी।
केवट अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में केवट के रूप में विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना। राम केवट के मर्म को समझ रहे थे, वो केवट की बात मानने को राजी हो गए।
धर्मग्रंथों के अनुसार राम के जन्म से पहले इस धरती पर आसुरी शक्तियां अपने चरम पर पहुंच गई थीं। राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि सभी इनसे परेशान थे। ऐसे में किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि श्रृंगवेरपुर के श्रृंगी ऋषि ही इस समस्या से निजात दिला सकते हैं।
ऋषि श्रृंगी त्रेता युग में एक बहुत बड़े तपस्वी थे। जिनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। राजा दशरथ के अभी तक कोई पुत्र नहीं था। केवल एक पुत्री थी जिसका नाम था शांता। दशरथ के मन में जहां एक ओर आसुरी शक्तियों से छुटकारा पाने की चिंता सता रही थी वहीं अपना वंश बढ़ाने के लिए पुत्र न होने की पीड़ा भी मन में थी। ऐसे में दशरथ को ऋषि वशिष्ठ ने इन समस्याओं के निवारण के लिए श्रृंगी ऋषि की मदद लेने की सलाह दी। तब राजा दशरथ की प्रार्थना पर ऋषि श्रृंगी उनके दरबार पहुंचे।
ऋषि ने राजा दशरथ से कहा कि इन समस्त समस्याओं का एक ही हल है-पुत्रकामेष्ठी यज्ञ। इसके बाद राजा दशरथ के घर पूरे विधिविधान से पुत्रकामेष्ठी यज्ञ कराया गया और कुछ वक्त बाद दशरथ के यहां विष्णु के अवतार में भगवान राम का जन्म हुआ। पूरे बारह दिन तक चला था ये यज्ञ और इस दौरान दशरथ ऋषि श्रृंगी के तप, उनके ज्ञान और शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी ऋषि से करने का निर्णय ले लिया और तब श्रृंगी बन गए दशरथ के दामाद।
माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव भी मानी जाती है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने केवट से गंगा पार कराने की मांग की थी।
केवट अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में केवट के रूप में विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना। राम केवट के मर्म को समझ रहे थे, वो केवट की बात मानने को राजी हो गए।
पृथ्वी को उपजाऊ बनाकर उसका उद्धार किया गया। यही अहिल्या (पृथ्वी) का वास्तविक उद्धार है।'
एक दिन मुनि महानंद ने अपने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, क्या श्री रामचंद जी के विषय में यह कथन सही है कि उन्होंने ऋषि गौतम की शापित पत्नी अहिल्या को अपने चरण कमलों की ठोकर मार कर उनका उद्धार किया था?' इस पर गुरु मुस्कराए, फिर बोले 'वत्स! यह तो जनश्रुति है, सत्य नहीं। राम जैसे मर्यादा पुरुष क्या किसी स्त्री को अपने पैर से ठोकर मार सकते थे? ठोकर मारना तो दूर, राम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस कथा के प्रतीकार्थ को समझने की जरूरत है। श्रीराम पृथ्वी विज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने इसी ज्ञान का प्रयोग कर प्रजा के उत्थान का प्रयास किया था। लेकिन यह कथा दूसरे ही रूप में प्रचलित हो गई। वत्स महानंद, यहां अहिल्या का अर्थ पृथ्वी है, ऐसी भूमि जो उपजाऊ तो हो परंतु उसमें अन्न उत्पन्न नहीं किया जा रहा हो। यानी जो भूमि वज्र तुल्य पड़ी हो। वस्तुत: वज्र तुल्य बेकार पड़ी पृथ्वी को अहिल्या कहा जाता है। ' गुरु जी ने स्पष्ट करते हुए कहा, 'हे महानंद! प्रभु श्रीरामचंद सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या त्याग कर वनवास जाते हुए जब निषाद राज्य सीमा में पहुंचे तो निषादराज ने तीनों का हार्दिक स्वागत करते हुए श्री रामचंद से प्रार्थना की, 'महाराज, मेरे योग्य कोई सेवा हो तो कृपया आदेश दें।'
श्री रामचंद ने स्वागत से विभोर होकर निषादराज से कहा, 'हे प्रिय बंधु निषादराज! यह जो बेकार पड़ी कृषि योग्य भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ, इसके लिए अपने कृषकों को आदेश दो कि वे इस वज्र तुल्य भूमि को पानी और खाद देकर, जोतकर उपजाऊ बनाएं तथा इसमें अन्न उत्पन्न करें।' निषादराज ने रामचंदजी का आदेश स्वीकार किया। निषाद राज्य के किसानों और श्रमिकों ने अत्यंत मेहनत से काम किया और देखते ही देखते वह भूमि लहलहा उठी। तो इस तरह रामचंद के कहने पर उस वज्र तुल्य पृथ्वी को उपजाऊ बनाकर उसका उद्धार किया गया। यही अहिल्या (पृथ्वी) का वास्तविक उद्धार है।'
महानंद एक आख्यान की इस व्याख्या से संतुष्ट हुए। उन्होंने कहा, 'इस कथा में निहित इस संदेश को जन-जन तक फैलाने की आवश्यकता है।'
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
श्री रामचंद ने स्वागत से विभोर होकर निषादराज से कहा, 'हे प्रिय बंधु निषादराज! यह जो बेकार पड़ी कृषि योग्य भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ, इसके लिए अपने कृषकों को आदेश दो कि वे इस वज्र तुल्य भूमि को पानी और खाद देकर, जोतकर उपजाऊ बनाएं तथा इसमें अन्न उत्पन्न करें।' निषादराज ने रामचंदजी का आदेश स्वीकार किया। निषाद राज्य के किसानों और श्रमिकों ने अत्यंत मेहनत से काम किया और देखते ही देखते वह भूमि लहलहा उठी। तो इस तरह रामचंद के कहने पर उस वज्र तुल्य पृथ्वी को उपजाऊ बनाकर उसका उद्धार किया गया। यही अहिल्या (पृथ्वी) का वास्तविक उद्धार है।'
महानंद एक आख्यान की इस व्याख्या से संतुष्ट हुए। उन्होंने कहा, 'इस कथा में निहित इस संदेश को जन-जन तक फैलाने की आवश्यकता है।'
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
एकलव्य: आम आदमी के जरिए खास संदेश

एकलव्य के बारे में देश को कहानियों, परम्पराओं व जनुश्रुतियों के जरिए जितना मालूम है, उसका अधिकांश महाभारत में दर्ज है। आप किसी बच्चे के सामने भी एकलव्य का नाम लेंगे तो वह एकलव्य के प्रति बड़े आदर और सम्मान के भाव से बता देगा कि वह एक भील बालक था।
महाभारत के मुताबिक वह निषादराज हिरण्यधानु का पुत्र था- ततो निषादराजस्य हिरण्यधानुष: सुत: एकलव्य: (महाभारत आदिपर्व 131.31) ऐसा लगता है कि पुराने जमाने में निषादों का, जो भील भी थे और मछलीपालन तथा नौकायन का काम भी करते थे, अपना व्यावसायिक और राजनीतिक संगठन काफी मजबूत था और उसे बकायदा राजकीय मान्यता हासिल थी। राम के समय निषादराज गुह की भूमिका से हम सभी सुपरिचित हैं कि कैसे उसने एक बार राम के पक्ष में भरत से लड़ने का मन बना लिया था, पर जब भरत के बारे में वास्तविकता मालूम पड़ी तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शान्तनु की पत्नी सत्यवती के पिता दाश का परिचय भी हमें निषादराज के रूप में ही करवाया जाता है। एकलव्य के पिता भी निषादराज थे।
द्रुपद से अपमानित और पीड़ित द्रोण जब घूमते-घामते हस्तिनापुर पहुंचे और परिस्थितियों के चमत्कार से वे कुरु राजकुमारों यानी पाण्डवों और कौरवों को शस्त्रविद्या सिखाने के लिए राजकुल द्वारा नियुक्त कर लिए गए तो उनकी ख्याति सुनकर अन्य अनेक शिष्यताकामी युवाओं की तरह एकलव्य भी धनुर्विद्या सीखने के इरादे से उनके पास गए। शिष्यत्व चाहा, पर द्रोण ने एकलव्य को इस बिना पर सिखाने से मना कर दिया है कि वे केवल कुरु राजकुमारों को ही धनुर्विद्या सिखा रहे हैं, इसलिए एक नैषादि यानी भील बालक को कैसे अपना शिष्यत्व प्रदान कर दें?
नसतं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्। शिष्यं धानुषधार्मज्ञ: तेषामेवान्ववक्षया’ (आदिपर्व 131.32)
बस यहां से एकलव्य का चरित्र जो उभरना शुरू होता है तो वह उभरता ही जाता है। एकलव्य निराश नहीं हुआ। उसने द्रोण को मन ही मन अपना गुरु धारण कर लिया था और अपने इस भाव से वह डिगना भी नहीं चाहता था। इसलिए उसने द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाई- कृत्वा द्रोणं महीमयम् (आदिपर्व 131.33) और उसी प्रतिमा में गुरु द्रोण के साक्षात् दर्शन कर उनकी देखरेख में या निर्देशन में धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और अभ्यास करते-करते अपनी विद्या का परम विशेषज्ञ जैसा हो गया।
यही परमविशेषता एकलव्य की मानो दुश्मन बन गई। जो हुआ, वह कथा भी हम सबको मालूम है, पर फिर से बताने में कोई हर्ज नहीं। एक बार द्रोणाचार्य अर्जुन सहित अपने शिष्यों के साथ वन में घूम रहे थे। तभी एक कुत्ता उनके पास आया जिसके मुंह में सात बाण इस कुशलता से मारे गये थे कि वह घायल तो नहीं हुआ, पर उसका भूंकना रुक गया। अर्जुन यह देख लजा गया कि इस धरती पर एक ऐसा धनुर्धर भी है जिसने कुत्तो के मुंह को इस तरह बींधा दिया है कि जिस तरह शायद वह भी न बींधा पाए। उधर द्रोण ने अपने शिष्य अर्जुन से मानो प्रतिज्ञा जैसी कर रखी थी कि वे उसे धनुर्विद्या में ऐसा विशिष्ट बना देंगे कि उस जैसा और कोई धनुर्धर इस पृथ्वी पर नहीं होगा। पर बिंधे मुंह वाले कुत्तो को देखकर अर्जुन को साफ आभास हो गया कि उससे बढ़कर न सही, पर उस जैसा एक और धनुर्धारी भी इस धरती पर है।
सो द्रोण ने अपने शिष्यों के साथ तलाश शुरू की और जल्दी ही उन सबकी मुलाकात एकलव्य से हो गई। उसके बाद जो घटा वह मानवीय गरिमा और मानवीय करुणा के लिए सचमुच विदारक है। द्रोण ने परिचय पूछा तो जानते हैं एकलव्य ने क्या कहा? ‘मैं द्रोण का शिष्य हूं- द्रोणशिष्यं तु मां विद्धि’ (आदिपर्व 131.45) इससे बढ़कर गुरुभक्ति क्या हो सकती है? पर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने की अपनी प्रतिज्ञा या घोषित इच्छा के मोह के कारण द्रोण इतने कमजोर हो चुके थे कि वह सहसा क्रूरता पर उतर आए। गुरु होने के नाते इस स्वत: स्फूर्त और विशेषज्ञ धनुर्धारी एकलव्य को हृदय से लगाकर आशीर्वाद देने के बजाए उन्होंने उससे निर्मम गुरुदक्षिणा मांग ली। यहां आकर तो स्वयं महाभारतकार भी द्रोण का उपहास करने से नहीं चूकते।
द्रोण ने एकलव्य से जो दुर्व्यवहार किया वह एक गुरु का नहीं, किसी स्वार्थी राजकर्मचारी का ही हो सकता था। इसलिए द्रोण ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में जो मांगा उसे महाभारतकार ने गुरुदक्षिणा नहीं, वेतन कहा है- यदि शिष्योस मे वीर वेतनं दीयतामिति (आदिपर्व 131.54) यानी हे वीर, अगर मेरे शिष्य हो तो मेरा वेतन भी दो। एकलव्य के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उसे उस गुरु ने अपना शिष्य मान लिया था जिसने कभी उसे शिष्यत्व देने से इनकार कर दिया था, पर जिसकी मिट्टी की मूर्ति को गुरु धारण कर उसने सारी विद्या सीखी थी। वह दक्षिणा देने को उतावला हो गया तो द्रोण ने वह मांगा जो मांगने के कारण अन्यथा उज्जवल चरित्र वाले द्रोण को इतिहास ने कभी क्षमा नहीं किया है। द्रोण बोले, अपना दाएं हाथ का अंगूठा मुझे दे दो- तमब्रवीत् त्वयांगुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति (आदिपर्व 131.56)।
द्रोण की इस लघुता, इस छोटेपन के आगे, अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए एक प्रतिभा को नष्ट कर देने के इस क्षुद्रकर्म के आगे एकलव्य ने क्या किया? जो किया वह सचमुच अद्भुत था। उसने एक क्षण विलम्ब किए बिना, यह जानते हुए भी कि दायां अंगूठा दे देने का परिणाम क्या होगा, तत्काल अपना अंगूठा काट कर दे दिया। उसके बाद भी एकलव्य ने हार नहीं मानी। उसने नए सिरे से अभ्यास करना शुरू किया और अपने दाएं हाथ की शेष उंगलियों से धनुष चलाना शुरू किया और जाहिर है कि वैसी प्रखरता उसकी धनुर्विद्या में उसके बाद नहीं आ सकी जैसी अंगूठा काटने से पहले थी। उसके बावजूद एकलव्य में इतनी कुशलता तो आ गई थी कि उसने महाभारत युद्ध में न केवल हिस्सा लिया बल्कि कुछ दिन वह वीरतापूर्वक लड़ता भी रहा। इस युद्ध में वह कौरवों की ओर से लड़ा था।
शताब्दियों की भारत-गाथा में एकलव्य एक ऐसा मीलपत्थर है जिसका महत्व इस देश के बच्चों ने तो समझ लिया है, शिक्षकों ने भी समझ लिया है, पर राजनेताओं ने नहीं। पहले तो ऐसा था और आज भी कहीं-कहीं हो तो ठीक ही माना जाएगा बच्चों को अपनी प्रारम्भिक कक्षाओं में एकलव्य की कहानी अनन्य गुरुभक्ति के आदर्श के रूप में पढ़ाई जाती थी। दुनिया में शायद भारत ही अकेला ऐसा देश है, जहां गुरु और गुरुभक्ति का महत्व है। इस माहौल में अकेले एकलव्य का एक पाठ ही बच्चों को गुरु और गुरुभक्ति के सम्पूर्ण महत्व को बिना व्याख्या और टीका टिप्पणी के समझा देता है।
उधर द्रोण का चरित्र क्या कहता है? शायद ऐसे शिक्षकों के इस तरह के कारनामों को आदर्श न मानने की धारणा से प्रेरित होकर ही उपनिषदकार ने लिखा होगा- यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वया ग्रहीतव्यानि नो इतराणि, अर्थात् हे शिष्य, हमारे जो अच्छे काम हैं उन्हीं से तुम प्रेरणा लेना, दूसरे (यानी खराब) कामों से प्रेरणा कतई मत लेना।
पर राजनेता? हमारे देश में राजनीति द्वारा समाज के सिर पर चढ़ कर अपना महत्व जताने की प्रवृत्ति चूंकि अभी नई-नई शुरू हुई है, और इस राजनीति ने समाज को तोड़कर सत्ता का ताज हासिल करने की अपनी आदत बना ली है, इसलिए एकलव्य की निर्दोष पर सशक्त संदेशपूर्ण घटना को आज जाति और वर्ग के खाने में रखकर देखने में राजनेताओं को मजा आ रहा है। इन राजनेताओं को द्रोण एक व्यक्ति नहीं बल्कि ब्राह्मण और एकलव्य एक व्यक्ति नहीं बल्कि जनजाति का प्रतिनिधि नजर आता है और फिर थ्योरी यह बन जाती है कि देखो, ये ब्राह्मण शुरू से ही अपने से नीचा समझने वालों को प्रताड़ित करते रहे हैं। ऐसी राजनीति को न ऋषि पद को प्राप्त कवष ऐलूष नजर आता है और न ही शम्बूक जिसका प्रबल मान इसी तथाकथित ब्राह्मण परम्परा में हुआ है। न शबरी नजर आती है जिन्हें राम ने आदर दिया और न ही निषादराज गुह जिसके साथ राम ने मैत्री की।
ऐसी राजनीति को न सत्यवती से कोई लेना-देना है, जो कुरु-कुल-राजरानी बनी और न ही विदुर से कोई तात्पर्य है जो धृतराष्ट्र के महामंत्री रहे। ऐसी राजनीति को सिर्फ तोड़ने में मजा आता है, जोड़ने वाली घटनाएं याद करने में नहीं। पर क्या देश के छात्रों और शिक्षकों को और उन सभी को जो देश का कल्याण चाहते हैं, ऐसे मीलपत्थर को इस तरह राजनीतिक कलुष का शिकार होने देना चाहिए?
Sunday, 20 February 2011
Surgical Robotics Robots help surgeons transcend human limits

Surgical Robotics Robots help surgeons transcend human limits
"I was born with three heart defects. Two were operated on when I was 11 days old," she tells us. That was the first of many surgeries for the 34-year-old. But none was quite like last year's. "It was either to use the robot and have three small scars on my back or if it was done conventionally, I would have a scar all the way around," she explains.
The robot Hatchett refers to is called a da Vinci, which her cardiothoracic surgeon, Dr. David Yuh, explains was the best option for her surgery. "What we wanted to do is provide her with an operation that posed the least impact to her physically," says Yuh. To see a da Vinci in action might be a little intimidating at first. But in the simplest terms, it's really virtual reality crossing paths with surgery. The da Vinci Surgical System has two main components. On top of the operating table is a device that has four arms. It looks like a giant insect that hovers right on top of the patient. Those arms are inserted into the patient through small incisions.
Across the room, the surgeon sits near an ergonomically correct stereoscopic viewer. The surgeon, while sitting comfortably, can view a magnified 3-D high-resolution image of the operative site. The surgeon puts his hands in levers and as his hands move the levers, those levers translate his movements into precise movements by the arms of the robot. The surgeon "sees" and can "feel" movement and force of things like cutting and stitching as he watches it in 3-D.
"It allows us to do the kind of intricate maneuvers within her chest that would otherwise require a large incision," explains Yuh. When he's not in surgery, you might find Yuh honing his skills on the da Vinci at the Engineering Research Center for Computer-Integrated Surgical Systems and Technology (ERC CISST) at Johns Hopkins University in Baltimore, Md. Support from the National Science Foundation (NSF) has kept the center on the cutting edge in the development of surgical robotic technology.
"We're trying to couple the capabilities of machines with the judgment of humans to do a job better," says Russ Taylor, the center's director. "We have the opportunity to work at the cutting edge of technology in direct partnership with physicians that have real problems." Surgeons like Yuh come here to take the robots out for a test spin. He's using the heart of a dead pig to try out a new video overlay that will serve as a measuring tool. "The video overlay is very helpful. We can actually see what we are measuring right at the time of the operation and it's something that we are looking forward to trying," he explains.
The da Vinci isn't the only robot getting worked on here. Just down the hall, eye surgeon Jim Handa is testing out a steady-hand robot, crucial for eye surgery because it cancels out the threat of human-hand tremors. "The robot can smooth out the movement and enable someone who's not able to do it, to do it quite easily," says Handa. The robot comes complete with a 3-D monitor. So, with a pair of glasses similar to those worn at 3-D movies, Handa can get a three-dimensional view of just what he is instructing the robot to do. He scrapes the back of a mock eyeball, about the size of a ping-pong ball, ever so carefully with the help of the robot. Handa believes that the accuracy of robotic surgery might advance treatments for conditions like cancerous tumors in the eye. "The future, I believe, is very exciting. It's going to open up a whole different paradigm of how we do surgery." Center director Taylor agrees and adds, "We can transcend human limits. We can enable a clinician to do things that cannot be done, and we can improve the consistency, accuracy, the safety of existing interventions." And that has made all the difference for people like Whitney Hatchett. Miles O'Brien, Science Nation Correspondent Jon Baime, Science Nation Producer
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