Tuesday, 24 May 2011

क्या राम सीता ने की थी आत्महत्या

क्या राम सीता ने की थी आत्महत्या
लेखकः-राजेन्द्र कश्यप
(देश की प्रतिष्ठित वेब साइट ‘‘प्रतिवाद डाट काम’’ पर राम सीता ने की थी आत्महत्या नाम वीडियो पूरे देश व विदेश में देखा जा रहा है, जिसमें मुख्य वक्ता रमेश शर्मा जो राष्ट्रीय एकता परिषद मध्यप्रदेश के उपाध्यक्ष भी हैं।)
भोपाल। ‘‘जीवन का यथार्थ और भविष्यवाणियों का औचित्य’’ विषय पर आयोजित जनसंवेदना संस्था द्वारा संगोष्ठी मे रमेश शर्मा मुख्य वक्ता ने अपने वक्तव्य में हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ रामायण के मुख्य चरित्र भगवान श्री रामचन्द्र जी, उनकी धर्मपत्नी सीताजी एवं आयोध्या के राजा दशरथ की नयी व्याख्या में आत्महत्या करने वाला निरूपित किया है।
अपने पूर्व उद्बोधन में रामचरित्र मानस का शहरों में रामभक्तों द्वारा कराये जाने 24 घन्टे का अखण्ड पाठ की कड़ी आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह उचित नहीं है इससे पड़ोसियों को कष्ट पहुंचता है और वह रामायण का पाठ करने वालों को गालियां देते हैं। यह उचित नहीं है। भारत में ग्रामीण जन आपस में मिलने पर ‘जय राम जी ’ करते हैं। अपरिचित व्यक्ति से भी बात करते समय जय रामजी करने में संकोच नहीं करते बल्कि मृत्योपरान्त भी राम नाम का उच्चारण करते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपने प्राण त्यागते समय राम नाम का उच्चारण किया था। हिन्दू धर्म के मार्गदर्शक जगत गुरू शंकराचार्य साधु संतजन भी रामन नाम का जोर से उच्चारण को जोर देते हैं। अशिक्षित ग्रामीण जन स्वयं रामचरित्र का पाठ नहीं कर पाते हैं, इसलिये गावों में लाउड स्पीकर की आवाज दूर खेत, खलिहान तक पहुंच जाती है।
‘‘राम नाम की महिमा अपरंपार है’’। राम नाम पर देश में एक बार सत्ता परिवर्तन हो चूका है। ऐसे में मध्यप्रदेश में भाजपा पार्टी की सरकार है जिस पार्टी ने रामजन्म भूमि में राम मन्दिर निर्माण हेतु कृत संकल्पित है, उसी पार्टी के शासन काल में एक राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त श्री रमेश शर्मा अपने वक्तव्य में कहते हैं कि महाराजा दशरथ असंतुलित होकर एकस्ट्रीम में जाकर चलते फिरते दो वचन दे डालेओर अपने दो पुत्रों को वन में भटकना पड़ा। सीता को भी वनवास भुगतना पड़ा। वक्तव्य में कहा कि राम ने भी सरयू नदी में प्राण त्याग दिये यह भी आत्महत्या है।
एक धोबी के कहने पर एकस्ट्रीम में आकर राम ने अपनी पत्नी को वनवास दे दिया और उनके दो पुत्र (लव,कुश) को जीवन यापन के लिये शहरों में गाना गाकर रहना पड़ा। कुशल वक्ता शब्दजाल के प्रवीण रचयिता है। परन्तु स्पष्टतः अयोध्या राजा दशरथ एवं उनके पुत्र भगवान राम ने अत्महत्या की थी यह व्याख्या धर्म प्रेमी स्वीकार नहीं कर पायेंगे। रमेश शर्मा ने स्पष्ट कहा कि ये आत्महत्या हैं। हिन्दू धर्मानुसार आत्महत्या पाप होती है। राजा दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिये थे। सीता धरती पुत्री थीं और वह स्वयं धरती में समा गई थीं। इसी तरह राम ने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि प्राणों को ब्रह्माण्ड में चढ़ाकर प्राण त्याग दिये थे। रामचंद्र जी का जीवन संतुलित था। मर्यादा पुरूषोत्तम राम थे। उन्होंने पूरा जीवन मर्यादा में रहकर लोकतांत्रिक जनहितकारी क्रिया कलाप से युक्त जीवन व्यतीत किया।
चिन्तक विचारक रमेश शर्मा ने रामायण ओर भगवान राम की नई व्याख्या की है जो भारत के चिन्तकों की व्याख्या के बीच विरोधाभास लेकर एक आस्थाहीन संदर्भ लेकर आई है, जो भगवानराम को एक मानव रूप में कायर व्यक्तिकी भांति प्रस्तुत करने की कोशिश की है।
क्या अयोध्या के राजा दशरथ, उनके पुत्र भगवान रामचन्द्र जी ने आत्महत्या की थी और सीता जी भी ने भी आत्महत्या करके प्राण त्याग दिये थे। यह प्रश्न हिन्दुओं आस्थओं को चोट पहुंचाता है। क्या ऐसी सरकार को मध्यप्रदेश में शासन करने की अधिकारी है जिनका एक सहयोगी रामचन्द्र जी को आत्महत्या करने वाला मानता है। और क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान एवं शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री श्री लक्ष्मी कांत शर्मा जी रामायण की इसी व्याख्या से सहमत हैं।
प्रदेश ही नहीं देश भर के रामभक्तों की आस्थ को ठेस पहुंचाने के प्रयास आगे भी राजी रहेंगे। क्या मध्य प्रदेश सरकार श्री शिवराज सिंह चौहान का समर्थन ऐसी संस्थाओं और व्यक्तियों को मिलता रहेगा।
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Saturday, 5 March 2011

गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। इसका जिक्र वाल्मीकि रामायण में बहुत गहराई के साथ किया गया है।

इलाहाबाद। राम के किस्से और कहानियां तो हम बचपन से सुनते आए हैं लेकिन इलाहाबाद से महज 40 किमी की दूरी पर है वो जगह जो भगवान राम के धरती पर आने की वजह बनी। ये जगह है गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। इसका जिक्र वाल्मीकि रामायण में बहुत गहराई के साथ किया गया है।


धर्मग्रंथों के अनुसार राम के जन्म से पहले इस धरती पर आसुरी शक्तियां अपने चरम पर पहुंच गई थीं। राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि सभी इनसे परेशान थे। ऐसे में किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि श्रृंगवेरपुर के श्रृंगी ऋषि ही इस समस्या से निजात दिला सकते हैं।


ऋषि श्रृंगी त्रेता युग में एक बहुत बड़े तपस्वी थे। जिनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। राजा दशरथ के अभी तक कोई पुत्र नहीं था। केवल एक पुत्री थी जिसका नाम था शांता। दशरथ के मन में जहां एक ओर आसुरी शक्तियों से छुटकारा पाने की चिंता सता रही थी वहीं अपना वंश बढ़ाने के लिए पुत्र न होने की पीड़ा भी मन में थी। ऐसे में दशरथ को ऋषि वशिष्ठ ने इन समस्याओं के निवारण के लिए श्रृंगी ऋषि की मदद लेने की सलाह दी। तब राजा दशरथ की प्रार्थना पर ऋषि श्रृंगी उनके दरबार पहुंचे।









ऋषि ने राजा दशरथ से कहा कि इन समस्त समस्याओं का एक ही हल है-पुत्रकामेष्ठी यज्ञ। इसके बाद राजा दशरथ के घर पूरे विधिविधान से पुत्रकामेष्ठी यज्ञ कराया गया और कुछ वक्त बाद दशरथ के यहां विष्णु के अवतार में भगवान राम का जन्म हुआ। पूरे बारह दिन तक चला था ये यज्ञ और इस दौरान दशरथ ऋषि श्रृंगी के तप, उनके ज्ञान और शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी ऋषि से करने का निर्णय ले लिया और तब श्रृंगी बन गए दशरथ के दामाद।


माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव भी मानी जाती है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने केवट से गंगा पार कराने की मांग की थी।


केवट अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में केवट के रूप में विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना। राम केवट के मर्म को समझ रहे थे, वो केवट की बात मानने को राजी हो गए।

पृथ्वी को उपजाऊ बनाकर उसका उद्धार किया गया। यही अहिल्या (पृथ्वी) का वास्तविक उद्धार है।'

एक दिन मुनि महानंद ने अपने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, क्या श्री रामचंद जी के विषय में यह कथन सही है कि उन्होंने ऋषि गौतम की शापित पत्नी अहिल्या को अपने चरण कमलों की ठोकर मार कर उनका उद्धार किया था?' इस पर गुरु मुस्कराए, फिर बोले 'वत्स! यह तो जनश्रुति है, सत्य नहीं। राम जैसे मर्यादा पुरुष क्या किसी स्त्री को अपने पैर से ठोकर मार सकते थे? ठोकर मारना तो दूर, राम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस कथा के प्रतीकार्थ को समझने की जरूरत है। श्रीराम पृथ्वी विज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने इसी ज्ञान का प्रयोग कर प्रजा के उत्थान का प्रयास किया था। लेकिन यह कथा दूसरे ही रूप में प्रचलित हो गई। वत्स महानंद, यहां अहिल्या का अर्थ पृथ्वी है, ऐसी भूमि जो उपजाऊ तो हो परंतु उसमें अन्न उत्पन्न नहीं किया जा रहा हो। यानी जो भूमि वज्र तुल्य पड़ी हो। वस्तुत: वज्र तुल्य बेकार पड़ी पृथ्वी को अहिल्या कहा जाता है। ' गुरु जी ने स्पष्ट करते हुए कहा, 'हे महानंद! प्रभु श्रीरामचंद सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या त्याग कर वनवास जाते हुए जब निषाद राज्य सीमा में पहुंचे तो निषादराज ने तीनों का हार्दिक स्वागत करते हुए श्री रामचंद से प्रार्थना की, 'महाराज, मेरे योग्य कोई सेवा हो तो कृपया आदेश दें।'

श्री रामचंद ने स्वागत से विभोर होकर निषादराज से कहा, 'हे प्रिय बंधु निषादराज! यह जो बेकार पड़ी कृषि योग्य भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ, इसके लिए अपने कृषकों को आदेश दो कि वे इस वज्र तुल्य भूमि को पानी और खाद देकर, जोतकर उपजाऊ बनाएं तथा इसमें अन्न उत्पन्न करें।' निषादराज ने रामचंदजी का आदेश स्वीकार किया। निषाद राज्य के किसानों और श्रमिकों ने अत्यंत मेहनत से काम किया और देखते ही देखते वह भूमि लहलहा उठी। तो इस तरह रामचंद के कहने पर उस वज्र तुल्य पृथ्वी को उपजाऊ बनाकर उसका उद्धार किया गया। यही अहिल्या (पृथ्वी) का वास्तविक उद्धार है।'

महानंद एक आख्यान की इस व्याख्या से संतुष्ट हुए। उन्होंने कहा, 'इस कथा में निहित इस संदेश को जन-जन तक फैलाने की आवश्यकता है।'

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

एकलव्य: आम आदमी के जरिए खास संदेश


एकलव्य के बारे में देश को कहानियों, परम्पराओं व जनुश्रुतियों के जरिए जितना मालूम है, उसका अधिकांश महाभारत में दर्ज है। आप किसी बच्चे के सामने भी एकलव्य का नाम लेंगे तो वह एकलव्य के प्रति बड़े आदर और सम्मान के भाव से बता देगा कि वह एक भील बालक था।

महाभारत के मुताबिक वह निषादराज हिरण्यधानु का पुत्र था- ततो निषादराजस्य हिरण्यधानुष: सुत: एकलव्य: (महाभारत आदिपर्व 131.31) ऐसा लगता है कि पुराने जमाने में निषादों का, जो भील भी थे और मछलीपालन तथा नौकायन का काम भी करते थे, अपना व्यावसायिक और राजनीतिक संगठन काफी मजबूत था और उसे बकायदा राजकीय मान्यता हासिल थी। राम के समय निषादराज गुह की भूमिका से हम सभी सुपरिचित हैं कि कैसे उसने एक बार राम के पक्ष में भरत से लड़ने का मन बना लिया था, पर जब भरत के बारे में वास्तविकता मालूम पड़ी तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शान्तनु की पत्नी सत्यवती के पिता दाश का परिचय भी हमें निषादराज के रूप में ही करवाया जाता है। एकलव्य के पिता भी निषादराज थे।

द्रुपद से अपमानित और पीड़ित द्रोण जब घूमते-घामते हस्तिनापुर पहुंचे और परिस्थितियों के चमत्कार से वे कुरु राजकुमारों यानी पाण्डवों और कौरवों को शस्त्रविद्या सिखाने के लिए राजकुल द्वारा नियुक्त कर लिए गए तो उनकी ख्याति सुनकर अन्य अनेक शिष्यताकामी युवाओं की तरह एकलव्य भी धनुर्विद्या सीखने के इरादे से उनके पास गए। शिष्यत्व चाहा, पर द्रोण ने एकलव्य को इस बिना पर सिखाने से मना कर दिया है कि वे केवल कुरु राजकुमारों को ही धनुर्विद्या सिखा रहे हैं, इसलिए एक नैषादि यानी भील बालक को कैसे अपना शिष्यत्व प्रदान कर दें?
नसतं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्। शिष्यं धानुषधार्मज्ञ: तेषामेवान्ववक्षया’ (आदिपर्व 131.32)

बस यहां से एकलव्य का चरित्र जो उभरना शुरू होता है तो वह उभरता ही जाता है। एकलव्य निराश नहीं हुआ। उसने द्रोण को मन ही मन अपना गुरु धारण कर लिया था और अपने इस भाव से वह डिगना भी नहीं चाहता था। इसलिए उसने द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाई- कृत्वा द्रोणं महीमयम् (आदिपर्व 131.33) और उसी प्रतिमा में गुरु द्रोण के साक्षात् दर्शन कर उनकी देखरेख में या निर्देशन में धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और अभ्यास करते-करते अपनी विद्या का परम विशेषज्ञ जैसा हो गया।

यही परमविशेषता एकलव्य की मानो दुश्मन बन गई। जो हुआ, वह कथा भी हम सबको मालूम है, पर फिर से बताने में कोई हर्ज नहीं। एक बार द्रोणाचार्य अर्जुन सहित अपने शिष्यों के साथ वन में घूम रहे थे। तभी एक कुत्ता उनके पास आया जिसके मुंह में सात बाण इस कुशलता से मारे गये थे कि वह घायल तो नहीं हुआ, पर उसका भूंकना रुक गया। अर्जुन यह देख लजा गया कि इस धरती पर एक ऐसा धनुर्धर भी है जिसने कुत्तो के मुंह को इस तरह बींधा दिया है कि जिस तरह शायद वह भी न बींधा पाए। उधर द्रोण ने अपने शिष्य अर्जुन से मानो प्रतिज्ञा जैसी कर रखी थी कि वे उसे धनुर्विद्या में ऐसा विशिष्ट बना देंगे कि उस जैसा और कोई धनुर्धर इस पृथ्वी पर नहीं होगा। पर बिंधे मुंह वाले कुत्तो को देखकर अर्जुन को साफ आभास हो गया कि उससे बढ़कर न सही, पर उस जैसा एक और धनुर्धारी भी इस धरती पर है।

सो द्रोण ने अपने शिष्यों के साथ तलाश शुरू की और जल्दी ही उन सबकी मुलाकात एकलव्य से हो गई। उसके बाद जो घटा वह मानवीय गरिमा और मानवीय करुणा के लिए सचमुच विदारक है। द्रोण ने परिचय पूछा तो जानते हैं एकलव्य ने क्या कहा? ‘मैं द्रोण का शिष्य हूं- द्रोणशिष्यं तु मां विद्धि’ (आदिपर्व 131.45) इससे बढ़कर गुरुभक्ति क्या हो सकती है? पर अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने की अपनी प्रतिज्ञा या घोषित इच्छा के मोह के कारण द्रोण इतने कमजोर हो चुके थे कि वह सहसा क्रूरता पर उतर आए। गुरु होने के नाते इस स्वत: स्फूर्त और विशेषज्ञ धनुर्धारी एकलव्य को हृदय से लगाकर आशीर्वाद देने के बजाए उन्होंने उससे निर्मम गुरुदक्षिणा मांग ली। यहां आकर तो स्वयं महाभारतकार भी द्रोण का उपहास करने से नहीं चूकते।

द्रोण ने एकलव्य से जो दुर्व्यवहार किया वह एक गुरु का नहीं, किसी स्वार्थी राजकर्मचारी का ही हो सकता था। इसलिए द्रोण ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में जो मांगा उसे महाभारतकार ने गुरुदक्षिणा नहीं, वेतन कहा है- यदि शिष्योस मे वीर वेतनं दीयतामिति (आदिपर्व 131.54) यानी हे वीर, अगर मेरे शिष्य हो तो मेरा वेतन भी दो। एकलव्य के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उसे उस गुरु ने अपना शिष्य मान लिया था जिसने कभी उसे शिष्यत्व देने से इनकार कर दिया था, पर जिसकी मिट्टी की मूर्ति को गुरु धारण कर उसने सारी विद्या सीखी थी। वह दक्षिणा देने को उतावला हो गया तो द्रोण ने वह मांगा जो मांगने के कारण अन्यथा उज्जवल चरित्र वाले द्रोण को इतिहास ने कभी क्षमा नहीं किया है। द्रोण बोले, अपना दाएं हाथ का अंगूठा मुझे दे दो- तमब्रवीत् त्वयांगुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति (आदिपर्व 131.56)।

द्रोण की इस लघुता, इस छोटेपन के आगे, अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए एक प्रतिभा को नष्ट कर देने के इस क्षुद्रकर्म के आगे एकलव्य ने क्या किया? जो किया वह सचमुच अद्भुत था। उसने एक क्षण विलम्ब किए बिना, यह जानते हुए भी कि दायां अंगूठा दे देने का परिणाम क्या होगा, तत्काल अपना अंगूठा काट कर दे दिया। उसके बाद भी एकलव्य ने हार नहीं मानी। उसने नए सिरे से अभ्यास करना शुरू किया और अपने दाएं हाथ की शेष उंगलियों से धनुष चलाना शुरू किया और जाहिर है कि वैसी प्रखरता उसकी धनुर्विद्या में उसके बाद नहीं आ सकी जैसी अंगूठा काटने से पहले थी। उसके बावजूद एकलव्य में इतनी कुशलता तो आ गई थी कि उसने महाभारत युद्ध में न केवल हिस्सा लिया बल्कि कुछ दिन वह वीरतापूर्वक लड़ता भी रहा। इस युद्ध में वह कौरवों की ओर से लड़ा था।

शताब्दियों की भारत-गाथा में एकलव्य एक ऐसा मीलपत्थर है जिसका महत्व इस देश के बच्चों ने तो समझ लिया है, शिक्षकों ने भी समझ लिया है, पर राजनेताओं ने नहीं। पहले तो ऐसा था और आज भी कहीं-कहीं हो तो ठीक ही माना जाएगा बच्चों को अपनी प्रारम्भिक कक्षाओं में एकलव्य की कहानी अनन्य गुरुभक्ति के आदर्श के रूप में पढ़ाई जाती थी। दुनिया में शायद भारत ही अकेला ऐसा देश है, जहां गुरु और गुरुभक्ति का महत्व है। इस माहौल में अकेले एकलव्य का एक पाठ ही बच्चों को गुरु और गुरुभक्ति के सम्पूर्ण महत्व को बिना व्याख्या और टीका टिप्पणी के समझा देता है।

उधर द्रोण का चरित्र क्या कहता है? शायद ऐसे शिक्षकों के इस तरह के कारनामों को आदर्श न मानने की धारणा से प्रेरित होकर ही उपनिषदकार ने लिखा होगा- यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वया ग्रहीतव्यानि नो इतराणि, अर्थात् हे शिष्य, हमारे जो अच्छे काम हैं उन्हीं से तुम प्रेरणा लेना, दूसरे (यानी खराब) कामों से प्रेरणा कतई मत लेना।

पर राजनेता? हमारे देश में राजनीति द्वारा समाज के सिर पर चढ़ कर अपना महत्व जताने की प्रवृत्ति चूंकि अभी नई-नई शुरू हुई है, और इस राजनीति ने समाज को तोड़कर सत्ता का ताज हासिल करने की अपनी आदत बना ली है, इसलिए एकलव्य की निर्दोष पर सशक्त संदेशपूर्ण घटना को आज जाति और वर्ग के खाने में रखकर देखने में राजनेताओं को मजा आ रहा है। इन राजनेताओं को द्रोण एक व्यक्ति नहीं बल्कि ब्राह्मण और एकलव्य एक व्यक्ति नहीं बल्कि जनजाति का प्रतिनिधि नजर आता है और फिर थ्योरी यह बन जाती है कि देखो, ये ब्राह्मण शुरू से ही अपने से नीचा समझने वालों को प्रताड़ित करते रहे हैं। ऐसी राजनीति को न ऋषि पद को प्राप्त कवष ऐलूष नजर आता है और न ही शम्बूक जिसका प्रबल मान इसी तथाकथित ब्राह्मण परम्परा में हुआ है। न शबरी नजर आती है जिन्हें राम ने आदर दिया और न ही निषादराज गुह जिसके साथ राम ने मैत्री की।

ऐसी राजनीति को न सत्यवती से कोई लेना-देना है, जो कुरु-कुल-राजरानी बनी और न ही विदुर से कोई तात्पर्य है जो धृतराष्ट्र के महामंत्री रहे। ऐसी राजनीति को सिर्फ तोड़ने में मजा आता है, जोड़ने वाली घटनाएं याद करने में नहीं। पर क्या देश के छात्रों और शिक्षकों को और उन सभी को जो देश का कल्याण चाहते हैं, ऐसे मीलपत्थर को इस तरह राजनीतिक कलुष का शिकार होने देना चाहिए?

Sunday, 20 February 2011

Surgical Robotics Robots help surgeons transcend human limits


Surgical Robotics Robots help surgeons transcend human limits

"I was born with three heart defects. Two were operated on when I was 11 days old," she tells us. That was the first of many surgeries for the 34-year-old. But none was quite like last year's. "It was either to use the robot and have three small scars on my back or if it was done conventionally, I would have a scar all the way around," she explains.

The robot Hatchett refers to is called a da Vinci, which her cardiothoracic surgeon, Dr. David Yuh, explains was the best option for her surgery. "What we wanted to do is provide her with an operation that posed the least impact to her physically," says Yuh. To see a da Vinci in action might be a little intimidating at first. But in the simplest terms, it's really virtual reality crossing paths with surgery. The da Vinci Surgical System has two main components. On top of the operating table is a device that has four arms. It looks like a giant insect that hovers right on top of the patient. Those arms are inserted into the patient through small incisions.

Across the room, the surgeon sits near an ergonomically correct stereoscopic viewer. The surgeon, while sitting comfortably, can view a magnified 3-D high-resolution image of the operative site. The surgeon puts his hands in levers and as his hands move the levers, those levers translate his movements into precise movements by the arms of the robot. The surgeon "sees" and can "feel" movement and force of things like cutting and stitching as he watches it in 3-D.

"It allows us to do the kind of intricate maneuvers within her chest that would otherwise require a large incision," explains Yuh. When he's not in surgery, you might find Yuh honing his skills on the da Vinci at the Engineering Research Center for Computer-Integrated Surgical Systems and Technology (ERC CISST) at Johns Hopkins University in Baltimore, Md. Support from the National Science Foundation (NSF) has kept the center on the cutting edge in the development of surgical robotic technology.

"We're trying to couple the capabilities of machines with the judgment of humans to do a job better," says Russ Taylor, the center's director. "We have the opportunity to work at the cutting edge of technology in direct partnership with physicians that have real problems." Surgeons like Yuh come here to take the robots out for a test spin. He's using the heart of a dead pig to try out a new video overlay that will serve as a measuring tool. "The video overlay is very helpful. We can actually see what we are measuring right at the time of the operation and it's something that we are looking forward to trying," he explains.

The da Vinci isn't the only robot getting worked on here. Just down the hall, eye surgeon Jim Handa is testing out a steady-hand robot, crucial for eye surgery because it cancels out the threat of human-hand tremors. "The robot can smooth out the movement and enable someone who's not able to do it, to do it quite easily," says Handa. The robot comes complete with a 3-D monitor. So, with a pair of glasses similar to those worn at 3-D movies, Handa can get a three-dimensional view of just what he is instructing the robot to do. He scrapes the back of a mock eyeball, about the size of a ping-pong ball, ever so carefully with the help of the robot. Handa believes that the accuracy of robotic surgery might advance treatments for conditions like cancerous tumors in the eye. "The future, I believe, is very exciting. It's going to open up a whole different paradigm of how we do surgery." Center director Taylor agrees and adds, "We can transcend human limits. We can enable a clinician to do things that cannot be done, and we can improve the consistency, accuracy, the safety of existing interventions." And that has made all the difference for people like Whitney Hatchett. Miles O'Brien, Science Nation Correspondent Jon Baime, Science Nation Producer
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किसानी का संकट
संपादक : जयन्त वर्मा
प्रकाशक : संवाद सोसायटी फॉर एड्वोकेसी एण्ड डेवलॅपमेन्ट
सेवा सदन, पोलीपाथर,
नर्मदा रोड, जबलपुर, मध्यप्रदेश
फोन 0761 2668472, 2665829

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पवन चौधरी, विजडम गुरू


सफलता की त्रिवेणी

चाणक्य का राजनीति ज्ञान, कन्यूशियस का
सामाजिक ज्ञान और कबीर का आध्यात्मिक ज्ञान,

लेखकः पवन चौधरी, विजडम गुरू

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Saturday, 19 February 2011

neshad raj


Nishadraj


Nishadraj

Other names- Nishadaraja, Nisadraja, Nisadaraja, Nisadraj
Nishadraj Guha was the King of Kevati by the banks of Ganga. He was an Adivasi (original inhabitant of the land). When Rama arrived at the banks of the river with Lakshman and Sita, minister Sumantra too went with them with his chariot. The capital of Kevati was Shrngaverapura

It was at this spot that Rama tied his tresses into a hermit’s knot using the milky sap from the banyan tree, in preparation for his life in the forest. Sumantra bid farewell to Rama, Sita and Lakshman and returned to Ayodhya from this place.

Near the town of Shrngaverapura, on the outskirts of the city, Rama retired for the night on a bed made of leaves and grass under the shade of a sheesham tree. While Rama and Sita rested, Lakshman and Guha kept vigil through the night. Guha offered them a repast of fruits, berries and roots of the forest. Rama had made a friend of the tribal king Guha and it was he who helped them cross River Ganga in a boat. It was at Shrngaverapura that Rama began his stay in the forest, and Sumantra narrated this to Dasharatha when he returned to Ayodhya. The detailed narrations made Dasharatha realize the finality of parting and he could no longer bear to live on.

When Bharat went into the forest to meet Rama, with his army and entourage, Guha thought at first that he was coming to attack Rama, Lakshman and Sita in order to become the sole heir to the throne. But his advance spies he sent out informed him that it was not so. Guha was keeping his army ready to keep off Bharat but when he learnt that Bharat was coming in peace to persuade Rama to return, he arranged for a formal welcome for Bharat and Shatrughna with due royal honor. Bharat and his entourage rested at Shrngaverapura. Then Guha led them on, showing them the path to Panchavati, where Rama, Lakshman and Sita had built their forest dwelling.

When Rama returned victorious after fourteen years in the forest, he did not forget to meet and greet his friend Nishadraj. He was also invited to the coronation ceremony of Rama in Ayodhya. He always received the friendship and support of Shri Rama. Nishadraj was an emotional, genuine person, eager to help and befriend Rama and protect him if he could. It is this selfless association with Rama that makes him a character of Ramayana whose actions always tug at the heartstrings.

होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं।



होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[९] प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[१०]

प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[११] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[१२]

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं



होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[१३]


होलिका दहनहोली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[१४] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[१४] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।


सार्वजनिक होली मिलनहोली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।

होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

होली

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[१]

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[२] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[३]

रंगों का त्यौहार होली


भारत विभिन्न त्योहारों का देश है , उनमें से एक त्यौहार है होली जिसे हम रंगों का त्यौहार भी कहते है | होली शीत ऋतु के उपरांत वसंत का आगमन , चारों तरफ रंग - बिरंगे फूल , हमें होली के आने की सूचना देता है | होली चारो ओर सोंदर्य बिखेरती है | होली का त्यौहार प्रति वर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है | होली से एक दिन पहले रात्रि को होलिका दहन होता है और लोग इस अग्नि की पूजा करके उसमे गेहू तथा चने के बाल भूनते है | सुबह सवेरे से लोग रंगों से खेलते है | रंगों के साथ इस पर्व होली का धार्मिक महत्त्व है , इसके पीछे एक कथा प्रचलित है -
हिरन्यकश्यप नामक एक देत्यराज था , वह बुहत अत्याचारी था था , उसका एक पुत्र था उसक नाम प्रह‌लाद था | प्रह‌लाद ईश्वर का भक्त था और वह हिरन्यकश्यप की दानवता से परेशान था और समय समय पे अपने पिता को सचेत करता था की ईश्वर एक न एक दिन बुरे का फल देता है | प्रहलाद की एक बुआ थी होलिका , हिरन्यकश्यप ने होलिका से कहा की आज तुम प्रहलाद को लेकर आग पर बैठ जाना जिसमे प्रहलाद जल जाएगा और होलिका बच जायेगी , क्योकि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था , किन्तु प्रहलाद बच गया और होलिका जल गई | इस दिन सभी लोग किसी भी दुश्मनी , बैर भाव को भूल जाते है , एक दुसरे के गले लगते है, और गुझिया खाते है | होली के दिन सब रंगों से रंगे होते है| होली का दिन हम सब के जीवन को ख़ुशी और उल्लास से भर देता है |
- संजना

होली एक ऐसा त्यौहार है जो ऋतुराज वसंत में आता है

किसी भी जाति के त्यौहार और उत्सव वहाँ के इतिहास और परम्परा के परिचायक होते हैं । उनसे उस जाति के ओज, शौर्य और अन्य गुणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है । पर आजकल हमारे अधिकांश देशवासी त्यौहारों के मूल-तत्व को भूलकर उनको प्रायः उल्टे-सीधे ढंग से मनाने लग गये हैं, जिससे लाभ के स्थान पर प्रायः हानिक ही होती जान पड़ती है ।

समाज में विशेष रूप से चार श्रेणियों के व्यक्ति दिखलाई पड़ा करते हैं । पहले प्रकार के व्यक्ति वे हैं, जो अपने स्वार्थ का ध्यान बहुत कम रखते हैं और अपनी शक्ति तथा साधनों का उपयोग संसार के हित के लिये करते हैं । दूसरी श्रेणी के मनुष्यों में शक्ति की अधिकता होती है । और वे उस बल का प्रयोग सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों के दमन में करते हैं । तीसरे व्यक्ति वे होते हैं, जो ज्ञान और शारीरिक शक्ति का अभाव होते हुये भी आर्थिक दृष्टि से सफल होते है, वे कृषि, पशु पालन और व्यापार द्वारा उचित ढंग से धन कमाकर समाज के अनेक अभावों को दूर करने में सहायक बनते हैं । चौथी श्रेणी उन मनुष्यों की होती है, जो ज्ञान, बल ओर धन से रहित होते हुये शारीरिक श्रम से समाज की अत्यन्त उपयोगी सेवा करते हैं । इन चारों प्रकार के मनुष्यों को हम भारतीय समाज के प्राचीन संगठन के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम से पुकार सकते हैं ।

ये चारों श्रेणियों के व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज सेवा करते एक-दूसरे को सहयोग व सहायता प्रदान करते रहते थे । अपने र्कत्तव्यों के स्मरणार्थ प्रत्येक श्रेणी का एक-एक त्यौहार भी नियत किया गया था । इनमें से श्रावणी ब्राह्मणों का त्यौहार है जिस प्रकार वे किसी पवित्र जलाश्य के तट पर अपने धार्मिक र्कत्तव्यों का स्मरण करते हुए नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि उस वर्ष द्विजत्व के कर्तव्य के पालन व सद्ज्ञान के प्रचार में दत्तचित्त रहेंगे । दशहरा क्षत्रियों का त्यौहार माना गया था । इस दिन पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बल-पौरुष का अभ्यास कर हथियारों को साफ करके काम के लायक बनाते थे । जिसमें वे अपने आर्थिक कारोबार का सिंहावलोकन करके आगामी वर्ष के लिये बजट और योजना पर विचार करते थे । चौथा होली का त्यौहार है जिसमें श्रमजीवी वर्ग की ओर से सेवा और समानता के आदर्श की घोषणा की जाती थी ।

वर्तमान समय में यद्यपि सभी त्यौहारों में अनेक दोष घुस गये हैं और उनका आदर्श स्वरूप अधिकांश में लोप हो गया है, परन्तु होली का रूप सबसे अधिक बिगड़ा है । वैसे इस त्यौहार के मनाने की जो प्राचीन परिपाटी प्रतीक रूप में अब भी प्रचलित है, उससे प्रकट होता है कि यह एक विशुद्ध सामूहिक यज्ञ है । इस सम्बंध में निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-

(१) एक मास पूर्व शमी की लकड़ी गाड़कर फाल्गुण सुदी १५ को लकड़ी, कंडे इकट्ठे करके जलाना यज्ञ का ही रूप है ।

(२) जलाने से पूर्व आचार्य पंडित द्वारा उसका पूजन होना और गाँव के मुखिया द्वारा पूजन करवाना यह यज्ञ के यजमान बनाये जाने का चिह्न है ।

(३) होली में नारियल के लच्छें लपेटकर डालना यज्ञ की पूर्णाहुति में नारियल चढ़ाने का चिह्न है ।

(४) इसके पूजन में मिठाई गुड़ आदि चढ़ाकर बच्चों में बाँटना यज्ञ में प्रसाद वितरण का लक्षण है ।

(५) इसकी लपटों में, अग्नि में हविपात्र की बालों को पकाकर खाना भी यज्ञ का ही एक लक्षण है ।

(६) होली एक ऐसा त्यौहार है जो ऋतुराज वसंत में आता है । इसी समय सर्दी का अन्त और ग्रीष्म का आगमन होता है । इस समय ऋतु-परिवर्तन से चेचक के रोग का प्रकोप होता है । इस संक्रामक रोग से बचने के लिये पुराने समय में टेसू के फूलों का रंग बनाकर एक-दूसरे पर डालने की प्रथा चलाई गई थी और यज्ञ की सामग्री में भी इन्हीं फूलों की अधिकता रखी गई थी जिससे वायु में उपस्थित रोग के कीटाणु नष्ट हो जायें । पर आज उस टेसू के लाभदायक रंग के स्थान पर हानिकारक विदेशी रंगों का प्रयोग किया जाता है और लोग उनके चटकीलेपन को पसन्द भी करते हैं । अब वह प्रथा बहुत विकृत हो गई है और लड़के तथा नवयुवक बुरे-बुरे रंग सर्वथा अनजान और भिन्न समाज वालों पर भी डाल देते हैं, जिससे अनेक बार खून-खराबी की नौबत तक आ जाती है और रंग की होली के बजाय खून की होली दिखलाई पड़ने लगती है । यह मूर्खता की पराकाष्ठा है, और ऐसे लोग-त्यौहार मनाने की बजाय देश तथा धर्म की हत्या करते हैं ।

(७) होली को पूर्वजों ने एक सामूहिक सफाई के त्यौहार के रूप में भी माना था । जैसे दिवाली पर प्रत्येक व्यक्ति निजी घर की लिपाई, पुताई और स्वच्छता करता है, उसी प्रकार होली पर समस्त ग्राम या कस्बे की सफाई का सामूहिक कार्यक्रम रखा जाता था । वसंत ऋतु में सब पेड़ों के पत्ते झड़-झड़ कर चारों और फैल जाते है, बहुत कुछ कूड़ा कबाड़ भी स्वभावतः इकट्ठा होता है, उस सबकी सफाई होली में कर दी जाती थी । पर अब लोग उस उद्देश्य को भूलकर दूसरों पर कीचड़ और धूल फेंकने को त्यौहार का अंग समझ बैठे हैं । इससे उल्टा लोगों का स्वाथ्य खराब होता है और अनेक बार आँख आदि में चोट भी लग जाती है ।

(८)प्राचीन समय में होली प्रेम भाव को बढ़ाने वाला त्यौहार था । अगर वर्ष भर में आपस में कोई-झगड़े या मनमुटाव की बात हो गई हो तो इस दिन उसे भुलाकर सब लोग प्रेम से गले मिल लेते थे और पुरानी गलतियों के लिए एक-दूसरे को क्षमा करके फिर से मित्र सहयोगी बन जाते थे अब भी इस दिन एक-दूसरे के यहाँ मिलने को जाते हैं, पर प्रायः नशा करके गाली बककर झगड़ा पैदा कर लेते हैं, जो होली के उद्देश्य के सर्वथा प्रतिकूल है ।

वास्तव में होली का त्यौहार हमारे समाज में सबसे अधिक सामूहिकता का परिचायक है और यदि इसे समझदारी के साथ मनाया जाय तो यह हमारे लिये अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है । जिस प्रकार होली के पौराणिक उपाख्यान में बतलया गया है कि सच्चे भक्त प्रहलाद् ने असत्य और अन्याय का प्रतिरोध करके सत्य की रक्षा की थी और उसी की स्मृति में होली के त्यौहार की स्थापना की गई थी, उसी प्रकार हम भी यदि इस वास्तविक उद्देश्य का ध्यान रखकर होली का त्यौहार मनायें तो इस अवसर पर वर्तमान समय में होने वाली अनेक हानियों से बचकर इस त्यौहार को लोक कल्याण का एक प्रमुख साधन बना सकते हैं ।

बुद्धिमान, सुन्दर, स्वस्थ ऐसे बनो



मैं आपको कुछ उपयोगी बातें बतलाऊंगा जिनको अपनाकर आप अपनी स्मरण शक्ती बढा सकेंगे, कद लम्बा कर सकेंगे! इसके इलावा दांन्त-आखें सुन्दर, शरीर मजबूत बना सकेंगे! लड्कियों के बाल खूब लम्बे होसकेंगे! मन बडा प्रसन्न रख सकोगे! तो करना है न ये सब? करने में बडा आसान है!

*१. रोज रात को सोते समय अपनें पैरों के तलुओं की मालिश देसी घी, शुद्ध सरसों के तेल, जैतून के तेल या नारियल के तेल से करें(इन में से जो भी मिले)! नाक के अन्दर भी लगाएं और अपनी नाभी में भी लगायें! सर दर्द, नक्सीर(नाक से खून आना), दिमाग का भारीपन आदि सब ठीक हो जायेंगे!
*२. दो-तीन चम्मच मेथी-दाना लेकर रात भर पचास ग्राम पानी में भिगो दें! प्रातः पचास ग्राम कोई अच्छा तेल लें और मेथी, मेथी का पानी व तेल को किसी पीतल या लोहे के बर्तन में पकायें! जब मेथी के दाने काले होजायें तो तेल तैयार हो गया! अब इसको ठण्डा करके छानें और किसी कांच की शीशी में रखें! रात को सोते समय इसकी चार-पांच बूंदें कान में डालने से कुछ ही दिन में दिमाग तेज होगा, कैइ और रोग भी ठीक होंगे!
नाक-कान में तेल डालने से थोडा-थोडा जुकाम होकर दिमाग हलका और मन प्रसन्न होजायेगा! दांतों की दर्द गायब होने लगेगी!स्मरण शक्ती बढने लगेगी! इतना ही नहीं, आंखें भी सुन्दर बन जायेंगी!
*३. एक छोटीसी सच्ची कहानी सुनो! स्वामी जगदीश्वरानन्द जी किसी भक्त की बेटी की शादी में दिल्ली गये तो देखा कि शादी की सारी तैयारी और धूम-धाम तो जैसी होती है वैसी ही है पर दुल्हन तथा उसके माता-पिता कहीं नजर नहीं आरहे! पूछने पर पता चला कि ऊपर के कमरे में हैं, पर क्यों? किसी को पता नहीं था! स्वामी जी ऊपर के कमरे में गये तो देखा तीनो सर झुकाकर उदास बैठे हैं! लडकी दुलहन के कपडे पहने घुंघट में थी! प्रणाम आदी के बाद पूछा कि क्या बात है? पता चला कि लडकी को आई-फ़्लू हुआ है जिसका इलाज होनें में कई दिन लगेंगे! कोई बडे से बडा आधुनिक चिकित्सक तुरत-फ़ुरत आईफ़्लू का इलाज नहीं कर सकता! शादी में कैसे तो लडकी को मण्डप में बिठायें और कैसे मुंह दिखाई करें?
स्वामी जी ने कहा कि चिंता न करो, बेटी अभी ठीक होजायेगी! और स्वामी जग्दीश्वरानन्द जी ने ये चमत्कार करदिया, लड्की पांच-छः घण्टों में ठीक होगई! प्रातः फ़ेरों के समय उसे देखकर पता ही नहिं चलता था कि उसे कभी आईफ़्लू हुआ भी था! स्वामी जी का यह जादू आप भी सीख सकते हैं, सीखोगे?
स्वामीजी ने असली मेंहदी पानी में आटे की तरह गूंधकर उसका एक लड्डु जैसा बनाकर लडकी के गुदा-स्थान (मल-स्थान, ऐनस) पर रखवा दिया! एक-एक घण्टे बाद उसे बदलते रहे और लडकी का आईफ़्लू गायब होगया. कितना आसान है न? पर ध्यान रखना कि मेंहदी बहुत ठण्डी होती है, अतः सर्दियों के मौसम में या ज्वर आदि में इसका प्रयोग न करें! उच्च-रक्तचाप, आखों की लाली भी इससे ठीक हो सकती है! इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि प्रातः मल त्याग के बाद ठण्डे पानी से गुदा-स्थान को धोने से आंखें और दिमाग स्वस्थ रह्ते हैं! जो टायलेट-पेपर का प्रयोग करते हैं और फ़ोम की कुर्सी, गद्दियों पर अधिक बैठते हैं; उन्हें आंख,कान,दिमाग के रोग भी अधिक होते होंगे, है न?
*४. अमेरीका के प्रो. जे. मोर्गन (एम.डी) ने अपने साढे चार हजर मरीजों का इलाज बिना दवाओं के केवल ओम बुलवाकर कर दिया! हमने भी स्वयं अपने पर और कई बच्चों व रोगियों पर ओम का असर आजमाया है! वाकई बडी जल्दी व बडा अछा असर होता है! आप भी ओम का कमाल आजमाकर देखो! रोज प्रातः और सोते समय ओम का जाप पांच-दस मिनेट तक कुछदेर बोलकर और फ़िर कुछ देर बिना बोले (मानसिक) जाप करें! आप देखेंगे कि आपके सारे के सारे शारीरिक के और मानसिक रोग ठीक होते जा रहे हैं! बुद्धी व स्मरण-शक्ती, ताकत तथा उत्साह, प्रसन्नता बढती ही जायेगी! दस-बारह दिन में ही बडा अछा असर नजर आने लगता है!
*५. जर्मन, फ़्रांस, रूस, इटली आदि अनेक देशों के वैग्यानिकों ने खोज की है कि भारतीय गऊ के गोबर को जलाने से हैजा, प्लेग, टाईफ़ाईड, डायरिया, टी.बी. तक के रोगाणु मर जाते हैं! अगर गोबर के उपले के साथ थोडी सी दाख, मुनक्का, किशमिश या गुड जला दिया जाये तो असर और भी अधिक होता है! केवल आधे घण्टे में नब्बे प्रतिशत से अधिक रोगाणू-कीटाणू मर जाते हैं! यानी अगर हम अपने घर में गोबर का एक टुकडा (अपनी उंगली जितना लम्बा और मोटा), थोडा सा देसी घी लगाकर धूप की तरह रोज सुबह-शाम जलायें और उसके साथ दो- चार दाने मुनक्का, दाख, किशमिश या गुड जलायेंगे तो हमारे घर में कभी भी कोई कीटाणुजन्य रोग होगा ही नहीं! कोई रोग होगा भी तो कुछ दिन में ठीक होजाजायेगा! गोबर की बत्तियां बनाते समय अगर उसमें थोडा तगर,जीरा, जटामासी,बचा,ब्रह्मी आदि डालसकें तो और भी कई लाभ होंगे!
सबसे पहले आकलैंड के वैग्यानिकों ने यह खोज की थी कि संसार में दो तरह की गऊएं हैं! (१) जिनके दूध में बीटा कैसीन ’ए-१’ नामक प्रोटीन है वे सब कैंसर आदि रोग पैदा करती हैं! फ़्रेजियन, हलिस्टीन, रेड-डैनिश तथा अधिकांश जर्सी गऊएं ’ए-१’ प्रोटीन वाली हैं जिनके दूध से मधुमेह(डायबिटीज), कैंसर, आटिज्म, ह्रिदय रोग आदि असाध्य बीमारियां लगती हैं! इनका गोबर, गोमूत्र, दूध, स्पर्श आदी सबकुछ विशाक्त होता है! यही कारण है कि ब्राजील ने चालीस लाख से अधिक भारतीय गोवंश अपने देश में तैयार किया है! अमेरिका भी अब यही कर रहा है! (२) दूसरी वे गऊएं हैं जिनके दूध में ’ए-२’ नामक प्रोटीन होती है! ये दूध बल-बुद्धी वर्धक है और यह कैंसर रोधक है! हमारी सारी भारतीय गऊएं ’ए-२’ प्रोटीन वाली होती हैं! पर विदेशी लोग हमें यह बात बताते नहीं, हमसे छुपाते हैं! अतः हमें अपने इस स्वदेशी गोवंश की सुरक्षा करनी होगी और इसी के घी- दूध, गोबर, गोमूत्र का प्रयोग करना होगा!
*६. कुछ सावधानियां रखने, अपनाने की भी जरूरत है, फ़िर आपका स्वास्थ्य कमाल का होजायेगा! समझने और याद रखने की ये बात है कि बोतल और पैकिट में बन्द सभी खाने-पीने के आहार पदार्थों में कुछ ऐसे रसायन डाले जा रहे हैं जिससे हमारा शरीर और दिमाग कमजोर होजाते हैं! इनमें एक रसायन का नाम है ’मोनोसोडियम ग्लुटामेट’. इसके असर से स्नायुकोश मरने लगते हैं; लीवर, गुर्दे, ह्रिदय, आंतें आदि भी धीमी गति से बेकार होने लगते हैं! इस ग्लुटामेट से अफ़ीम की तरह इसकी आदत पड जाती है और इसके बिना रहना मुश्किल हो जाता है! इसके प्रभाव से कम स्वाद चीजें अधिक स्वाद लगती हैं और स्नायुतंत्र इस तरह से खराब होजाता है कि पेट भर जाने की सूचना दिमाग तक पहुंचनी बन्द हो जाती है! लीवर खराब होजाने के कारण भूख नहीं लगती पर कुरकुरे, चिप्स, चाकलेट, पिज्जा, बरगर, खूब खाए जाते हैं क्योंकि ग्लुट्मेट हमें इसके लिये मजबूर करता है!
इनके इलावा भी कई हानिकारक रसायनिक पदार्थ इन पैकिटों और बोतलों में होते हैं! अतः इनसे बचना चाहिये!
*८. अश्वगंधा, विधारा, शतावरी ५०-५० ग्राम लेकर पीस लें, अब इसमें १५० ग्राम मिश्री मिलाकर रोज प्रातः एक छ्म्मच चूर्ण पानी या गो के दूध से खाते रहें! खटाई कुछ्दिन नहीं खाएं और कब्ज न हो तो शरीर शक्तीशाली बन जायेगा.
*९. रोज सवेरे एक बताशे में ५-७ बूंदें बड के दूध की डालकर खाने से लडके, लडकियों, बडे, बूढों के मूत्र रोग टीक होजाते हैं और शरीर सुन्दर व शक्तीशाली बनता है!
*१०. सर में शैम्पू लगाने से बाल, आखें, स्मरणशक्ती व चेहरा ख्राब होने लगते हैं क्योंकि इनमें कई हानिकारक रसायनों का प्रयोग हुआ होता है! साधू-सन्तों और अयुर्वेद के नाम पर बने जितने भी शैम्पू हमें बाजार में मिले, सभी हानिकारक थे! इसलिये शैम्पू की जगह कुछ और प्रयोग करना होगा! रीठा, निम्बू, दही, मेंहदी व नरोल साबुन का प्रयोग करके देखें!
*११. आपने देखा होगा कि आजकल के बच्चों के दांत सफ़ेद-सुन्दर नहीं होते. जानते हैं क्यों ? टुथपेस्ट में डले हुए फ़्लोराईड से दान्त और हमारे शरीर की हड्डियां गलने, खराब होने लगती हैं. इसपर अनेक शोध होचुके हैं. अतः पेस्ट के स्थान पर किसी मन्जन का प्रयोग करना चाहिये. क्भी-कभी दातुन भी करते रहें. मल-मूत्र त्याग के समय दान्त दबाकर बैठें और बाद में कुल्ला कर लें. इससे भी दान्त मजबूत बनते हैं. असल में मल-मूत्र त्याग के समय हमारे दन्तों की जडों में कुछ तेजाबी पदार्थ एकत्रित होकर उनकी जडों को कमजोर बना देते हैं. कुल्ला करने से ये तेजाबी तत्व निकल जाते हैं. हमारे पूर्वज तभी तो मल-मूत्र त्याग के बाद सदा कुल्ला किया करते थे.
*१२. अन्त में एक बात और कि सोने से पहले रात को वही सोचकर और पढकर सोना जो आप बनना चाह्ते हैं! सवेरे उठकर भी कुछ्देर तक वही सोचना और ईश्वर से क्रिपा मंगना! केवल एक साल में आपको नजर आने लगेगा कि आपने जो मांगा था आप वही बनते जा रहे हो, हालात उसी के अनुसार बन रहे हैं!
अगर कोई समस्या हो, कोई प्रश्न हो तो ई-मेल पर भेजना; समाधान पत्र या ई-मेल से भेजेंगे! ई-मेल के लिये जरुरत हो तो अपने अध्यापक, माता या पिता की मदद लेना! अगर ई मेल नहीं भेज सकते तो पत्र लिखना, पता है-
“सुधाम, सपरून, सोलन-१७३२११ (हि.प्र.)
ई-मेल :dr.rk.solan@gmail.com

About डॉ राजेश कपूर
डा, राजेश कपूर, पारम्परिक चिकित्सक। अनेक वनौषधियों पर खोज और प्रयोग, राष्ट्रीय-प्रान्तीय स्तर पर शोध पात्र प्रकाशन व वार्ताएं ; आयुर्वेद पर अनेक असाध्य रोगों की सरल-स्वदेशी तकनीकों की खोज। विश्वविद्यालयों से ग्रामों तक जैविक खेती पर वार्ताएं।" गवाक्ष भारती " मासिक पत्रिका का संम्पादन-प्रकाशन। आपात्त काल में नौ मास की जेल यात्रा। पठन-पाठन के क्षेत्र : पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियां, जैविक खेती, भारत का सही गौरवपूर्ण इतिहास, चिकित्सा जगत के षड़यंत्र, भारत पर छद्म आक्रमण। आजकल - अध्ययन, लेखन और औषधालय संचालन ।
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मदरसा आरक्षण और आधुनिक शिक्षा






मदरसों के पाठयक्रम को बदलने की कोशिश की जा रही है। मदरसे काफी पुराने पाठ्यक्रम और इस्लामी शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे हैं। पिछले कुछ समय से मदरसों की भूमिका को लेकर लगातार बहस होती रही है, मदरसों पर चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं। पाकिस्तान की लाल मस्ज़िद के मदरसे के छात्रों और सैनिकों के बीच टकराव के बाद यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई। मालूम हो कि राजेन्द्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं। अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठयक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला लिया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है। भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक कानून बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसका उददेश्य पाठयक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केन्द्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक कानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा। प्रधानमंत्री सहित कई लोग इसका पुरजोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं। मगर कुछ मुसलमान धार्मिक नेताओं का कहना है कि धार्मिक अध्ययन के केन्द्र मदरसों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप अनुचित है।

हाल ही में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तक्षेप कबूल नहीं किया जायेगा। दरअसल मौलाना का ये रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्रीय सरकार मदरसों के लिए केन्द्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की तैयारी में है। मौलाना ने कहा कि केन्द्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं। उन्होंने कहा कि मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते।

इसी सिलसिले में हाल ही में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने केन्द्रीय मदरसा बोर्ड की स्थापना के संबंध में मुस्लिम सांसदों की एक बैठक बुलाई। हालांकि इस बैठक में कुल 59 मुस्लिम सांसदों में से सिर्फ 18 ने शिरकत की। बैठक में शामिल 5 सांसदों ने इस बोर्ड के संबंध में तैयार किए गए मसौदे को सही ठहराया, जबकि बाकी कई सांसदों ने इसमें बदलाव की सलाह दी। कुछ सांसदों ने तो मसौदे को सिरे से नकार ही दिया। सरकार तो मदरसों के अंदरूनी मामलों में दखलअंदाजी नहीं करना चाहती है, वह तो मदरसों को पारंपरिक मजहबी तालीम के साथ साथ आधुनिक शिक्षा से भी लैस करना चाहती है और इसके लिए आर्थिक मदद भी देना चाहती है। ऐसा तो नहीं है कि मुस्लिम तालीमी इदारे या दीगर मुस्लिम संस्थाऐं सरकार की आर्थिक मदद से फायदा न उठाती हों या सरकारी सब्सिडी को हराम समझती हों। भारत सरकार से हज यात्रा पर जाने वाली सब्सिडी का लाभ बड़ी संख्या में मुस्लमान उठा रहे हैं। वैसे भी मदरसों के आधुनिकीकरण की सिफारिश तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी की गई है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मदरसों में मुस्लिम छात्रों की सिर्फ 4 फीसदी तादाद है, बाकी 96 फीसदी मुस्लिम बच्चे सरकारी या गैरसरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। कमिटी की रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि तालीम के क्षेत्र में मुसलमानों को आबादी के दूसरे हिस्सों के बराबर खड़ा करने के लिए यह जरूरी है कि मुसलमानों की ज्यादा आबादी वाले इलाकों में केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय या कस्तूरबा गांधी विद्यालय खोले जाएं। असल में सरकार की नीयत पर कुछ मुसलान इसलिए शक कर रहे हैं कि ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में अभी तक ऐसा कोई विद्यालय नहीं खोला गया और न ही इस बारे में सरकार की तरफ से कोई बैठक बुलाई गई।

इसके विपरीत मदरसा बोर्ड की स्थापना के बारे में सरकार जल्दबाजी में दिखलाई देती है। ऐसे में सिब्बल साहब को यही सुझाव दिया जा सकता है कि मुसलमानों को कौमी तालीमी धारा में लाने की शुरूआत वह मुस्लिम बहुल इलाकों में सच्चर केटी के सुझावों के अनुसार विद्यालय खोलें। इसके बाद मदरसों का आधुनिकीकरण हो। अगर ऐसा होता है तो वो लोग खुद ही हाशिये पर चले जायेंगे, जो मदरसों पर अपनी इजारेदारी कायम रखने के मकसद से मदरसा बोर्ड की स्थापना की मुखालफत कर रहे हैं। जहां तक मदरसों का ताल्लुक है, कुछ को छोड़ कर बाकी की हालत बहुत ही खराब है। उनमें बच्चे भेड़ बकरियों की तरह रहते हैं और खैरात, ज़कात, फितरे और सदके की रकम पर पल रहे हैं। जबकि इन मदरसों के मालिक और संचालक अच्छी जिंदगी जी रहे हैं। इन मदरसों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों का संबंध गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले परिवारों से होता है। कमजोर वर्ग के अनेक मुस्लिम परिवारों के लिए मदरसे ही अपने बच्चों को साक्षर बना पाने का एकमात्र स्त्रोत होते हैं और यह बात अचानक नहीं हो गई है कि मदरसों में सुधार या आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा देने की मुहिम आगे बढ़ाने की जगह सिर्फ उनकी संख्या बढ़ाने या उनमें पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने का प्रमाण ही सामने आता है। चूंकि इस व्यवस्था में निचली जातियों और निचले वर्ग के बच्चे पढ़ने आते हैं, इसलिए वहां के पाठयक्रम और शिक्षण विधि में जानबूझकर संवाद, बहस, आलोचना और प्रश्नाकुलता जैसी चीजों को उभरने नहीं दिया जाता और उनसे शिक्षा पाकर निकलने वाले भी उसी दकियानूसी को जारी रखते हैं, जो नेतृत्व चाहता है। वहां से निकलने वाले लड़के भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाते। समाज की सामाजिक, आर्थिक परेशानियों की तो इस पढ़ाई में कोई चर्चा ही नहीं होती, धार्मिक सवालों पर भी तार्किक और खुले ढंग से चर्चा नहीं होती। मदरसों की तालीम पूरी करने के बाद ये बच्चे या तो मस्जिदों में इमाम और मुअज्जिन बनते हैं या फिर हज़ार-पांच सौ रूपये की टीचरी करते हैं।

इस तरह देखा जाए तो ज्यादातर मदरसे अर्धशिक्षित, गरीब मुसलमानों की एक ऐसी फौज तैयार कर रहे हैं जो जमाने की दौड़ में सबसे पीछे और खस्ताहाल हैं। क्या यही हम चाहते है कि गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के बच्चे मदरसे और म्यूनिसिपल स्कूलों में पढ़ें और खुशहाल परिवार अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाएं। अगर लोग ऐसा सोचते हैं तो इससे साफ होता है कि वे मॉडर्न तालीम पर अपनी पकड़ रखना चाहते हैं, जबकि गरीब मुसलमानों को मदरसा और म्युनिसिपल स्कूलों की तालीम पर छोड़े रखना चाहते हैं। इस तरह तो मदरसों को रवायती मजहबी तालीम के साथ आधुनिक तालीम से भी जोड़ने के लिए सरकार और सिब्बल साहब को एक लंबी जद्दोजहद करनी होगी। उन्हें मुस्लिम समाज को अपने विश्वास में लेकर उसके जेहन में यह बिठाना होगा कि अगर मदरसे से एक ऐसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति निकलता है जो एक दीनदार मुसलमान होने के साथ-साथ एक अच्छा डॉक्टर, इंजीनियर या फिर अच्छे पद पर पहुंचता है तो इसमें हर्ज ही क्या है ?

आज के समय में जिस तरह से मदरसों की हालत खराब होती चली जा रही है और वहां पढ़ाने वाले शिक्षकों को जिस तरह कम पैसों में अपना खर्च चलाना पड़ता है, उस स्थिति को बदलने में इस तरह का कोई बोर्ड काफी मदद कर सकता है। आखिर सरकारी स्तर पर संचालित किये जाने वाले वक्फ़ बोर्ड भी तो अपना काम कर ही रहे हैं। हां इतना जरूर है कि कुछ लोग इसके माध्यम से अपने फायदे की बात कर रहे हैं। अगर सरकारी मदद मिलने से मदरसों में शैक्षणिक माहौल में सुधार होता है तो उससे किसका भला होगा ? आख़िर सरकार की इस मंशा पर क्यों पानी फेरने का काम किया जा रहा है ? आज की तारीख में मदरसों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे स्वयं अपना खर्च चलाने के लिए अच्छी व्यवस्था कर पाएं ! इस स्थिति में अगर सरकार से कुछ पैसा इन मदरसों को मिल जाता है जिससे यहां पर भवन और अन्य बुनियादी सुविधाओं को बेहतर किया जा सके तो यह किस तरह से समाज के लिए हितकर नहीं होगा ? हां एक बात में सरकार का हस्तक्षेप नहीं बर्दाश्त किया जा सकता कि ये मदरसे वहां पर दीनी तालीम के अलावा कुछ और नहीं पढ़ाना चाहें तो कोई जबरजस्ती न की जाए। इतना तो किया ही जा सकता है कि विकास कर रहे मुस्लिम देशों में मदरसों कि व्यवस्था को देख समझकर भारत में भी उनका उदाहरण देकर अच्छी शिक्षा देने का प्रबंध किया जा सकता है।

इस तरह के काम केवल मिलकर ही किये जा सकते हैं। भारत में हिंदूओं की बहुतायत होने के कारण सरकार में भी यही अधिक हैं, बस यही बात मुस्लिम समाज को कहीं से शंकालु बना देती है कि कहीं किसी दिन इन मदरसों पर अन्य कोई बंधन न लगा दिया जाये ? अगर सरकार पूरे मुस्लिम समाज के भले की बात कर रही है तो इसके पक्ष में मुस्लिम समाज को ही मंथन करने की आवश्यकता अधिक है। मुस्लिम संदर्भ में करीब दसेक साल से मदरसा और आरक्षण अक्सर संवाद के केन्द्र में हैं। कुछ लोग इन दोनों यानी मदरसा और मुसलमानों के आरक्षण को राष्ट्रद्रोहिता की श्रेणी में रखने के एक ज़िद तक हिमायती हैं। उधर मुस्लिम मौलानाओं ने मदरसे की खिड़कियां और दरवाज़े बंद कर दिए हैं कि कहीं हल्की सी भी बयार आधुनिक शिक्षा की न पहुंच जाय और इस्लाम खतरे में न पड़ जाय ! अब ज्यादातर अनपढ़ मुसलमान क्या करें ? मुसलमानों की सियासत करने वालों ने भी कभी इन्हें अंधकूप से बाहर निकालने की कोशिश न की। समाज की निरक्षरता का फायदा उन्हें यह मिलता रहा कि उन्हें वरगलाना सुविधाजनक हुआ। जबकि यह तो सब जानते हैं कि बिना आधुनिक शिक्षा के विकास की बात बेमानी है। आरक्षण जैसी वैसाखी से हम कितनी दूर तक चल पायेंगे ?

वैसे भी मुस्लिम भाईयों को याद रखना होगा कि अल्लाह और रब के बाद कुरान में सबसे ज्यादा आने वाला शब्द है ज्ञान, शिक्षा ! अगर हम इतिहास की तरफ देखें तो इसके लिए मस्ज़िद को ऐसे केन्द्र की शक्ल में विकसित किया गया, जहां पर धार्मिक शिक्षा के साथ राजनीति और सामाजिक शिक्षा भी दी जाती थी। मस्ज़िद के साथ पुस्तकालय की भी व्यवस्था होती थी। मदीना और दमिश्क में बनी मस्ज़िद में प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी और यहां पर लड़के और लड़कियों दोनों के पढ़ने की व्यवस्था थी। लेकिन मुगल शासन के पतन और ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना के साथ ऐसे केन्द्र तेज़ी से कम होते गए और संसाधनों के अभाव में दम तोड़ते गए।

सवाल जरूरी है कि आखिर बिना सरकार की आर्थिक सहायता के मदरसों में आधुनिक शिक्षण की व्यवस्था कैसे की जाए ? मुसलमान देश के दलितों से इस अर्थ में खुश किस्मत हैं कि उनके पास मुस्लिम राजाओं, नबावों और सामंतों की समाज हितार्थ दान की गई ढेरों संपत्तियां हैं। जिन्हें वक्फ जायदाद कहते हैं। लगभग चार लाख एकड़ भूमि पर अवस्थित तीन लाख रजिस्टर्ड संपत्तियां वक्फ की हैं। जिनकी आय हजार करोड़ है। अगर वक्फ जायदाद का अच्छी तरह प्रबंध किया जाये तो इसकी आय से मुसलानों की ढेरों समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। लेकिन आज इतना भी वक्फ बोर्ड को हासिल नहीं होता और जो होता है उसका भी सही इस्तेमाल नहीं होता। दरअसल कुल वक्फ संपत्तियों में से सत्तर फीसदी पर अवैध कब्ज़ा है या उसे किसी तरह बेच दिया गया है। शेष तीस फीसदी जो है उसका दुरूपयोग ही हो रहा है। जबकि 1954-55 एक्ट स्पष्ट लिखता है कि केन्द्रीय सरकार राज्य सरकार को पूर्ण अधिकार देती है कि वह वक्फ बोर्ड कायम करे। उसे सही ढंग से चलाये और उसकी आय को मुसलमानों की प्रगति व उन्नति में खर्च किया जाय। लेकिन वक्फ बोर्ड पर काबिज लोग ऐसा होने नहीं देना चाहते । अगर इन संपत्तियों पर शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल आदि खोले जाएं और उसकी आय को मदरसों पर खर्च किया जाएं तो आधुनिक शिक्षा का यथोचित प्रबंध हो सकता है।

उ.प्र. सरकार बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ने मदरसे में पढ़ने वाले छात्रों के लिए नौकरियों का बाज़ार बढ़ाने के उददेश्य से पाठयक्रम में बदलाव करके अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और कम्प्यूटर को अनिवार्य विषय बना दिया है। जब केन्द्र सरकार की ओर से केन्द्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की बात आई तो जमीयत की ओर से इसका विरोध किया गया। देवबंद सहित मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ प्रमुख और प्रभावशाली माने जाने वाले संस्थानों ने इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई। अब सरकार असमंजस की स्थिति में है कि बोर्ड बनाने की प्रक्रिया को आगे ले जाए या नहीं। सरकार के मसौदे पर बैठकर कई उलेमा विचार विमर्श कर चुके हैं और इस पर सहमति भी बनी कि कुछ सुधारों के बाद इसे लागू किया जा सकता है। मसलन, देवबंद और कई अन्य गुटों को तो इसी प्रक्रिया में सरकार ने शामिल किया है पर सूफी रवायत को मानने वालों का प्रतिनिधित्व नहीं है। जानकार बताते हैं कि नौ राज्यों में राज्यस्तर पर मदरसा बोर्ड बना हुआ है लेकिन कई मुस्लिम संगठनों को लगता है कि इन बोर्डों से उन्हें मदद कम मिली है, सरकारी तानाशाही ज्यादा। केन्द्रीय बोर्ड पर विरोध की एक वजह यह भी हो सकती है। फिर मौलानाओं का कहना है कि सरकार को केवल मदरसों में पढ़ रहे बच्चों की ही परवाह क्यों है ? नए विश्वविद्यालयों का अल्पसंख्याकों के लिए निर्माण, पहले से मौजूद विश्वविद्यालयों को मुस्लिम युनिवर्सिटी का दर्जा और उन्हें मजबूत करने के सवाल पर सरकार गंभीर क्यों नहीं है ? मुस्लिम समाज अब बदल रहा है, उसे भावनात्मक मुददों से ज्यादा शिक्षा, रोजगार, अधिकार और विकास की चिंता सता रही है। वैसे भी आज का दौर प्रतियोगिता का है जिसमें शिक्षा के जरिए ही मुसलमान दूसरे से मुकाबला कर सकते हैं।

मदरसे का इतिहास

मदरसा अरबी भाषा का शब्‍द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्‍थान। इस्‍लाम धर्म एवं दर्शन की उच्‍च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्‍थाएं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्‍तव में मदरसों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते हैं। यहां इस्‍लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्‍यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्‍याख्‍या, हदीस इत्‍यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्‍च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्‍हें मदरसा आलिया कहते हैं। इनके अध्‍ययन का स्‍तर बीए और एमए का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्‍य, इस्‍लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्‍यादि विषयों का अध्‍ययन होता है। इन उच्‍च शिक्षा संस्‍थानों का पाठ्यक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्‍ला निजामी नाम के विद्वान ने अठारहवीं शताब्‍दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसे ही चल रहे हैं। उदारवादी एवं कट्टरपंथी मुसलमानों में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्‍या इस पाठ्यक्रम को ज्‍यों का त्‍यों जारी रखा जाए या परिवर्तित कर दिया जाए।

बॉलीवुड को भाने लगा मध्यप्रदेश


लो‍केन्‍द्र सिंह राजपूतमध्यप्रदेश, देश का हृदय है।
मध्यप्रदेश, देश का हृदय है। प्राकृतिक सौंदर्य, संपदा और ऐतिहासिक महत्व के स्थलों से भी खूब समृद्ध है मध्यप्रदेश। इसके सौंदर्य का गुणगान पर्यटन को आकर्षित करने के लिए बनाए गए विज्ञापन बखूबी करते हैं। मन को आल्हादित करने वाले मध्यप्रदेश के वातावरण ने आखिरकार बॉलीवुड को अपने मोहपाश में बांध ही लिया है। बॉलीवुड के नामी निर्देशकों में शुमार प्रकाश झा को भी मध्यप्रदेश भा गया है। सिने सितारों से सजी उनकी सफल फिल्म राजनीति की अधिकांश शूटिंग प्रदेश की राजधानी भोपाल में ही हुई थी। भोपालियों सहित प्रदेश की आवाम ने राजनीति में वीआईपी रोड और न्यू मार्केट का अप्रितम सौंदर्य निर्देशक प्रकाश झा की नजरों से देखा। अब वे अपनी बहुचर्चित फिल्म आरक्षण की शूटिंग के लिए सदी के महानायक अमिताभी बच्चन सहित भोपाल में डटे हुए हैं। इससे पहले बेहतरीन काम से लोगों के दिल पर राज करने वाले आमिर खान ने किसानों की दुर्दशा के प्रति देशभर में सहानभूति जुटाई अपनी फिल्म पीपली लाइव से। इसकी शूटिंग भी मध्यप्रदेश में ही हुई। प्रदेश के एक और महत्वपूर्ण शहर ग्वालियर ने भी बॉलीवुड सहित हॉलीवुड का ध्यान अपनी ओर खींचा है। खबर है कि ग्वालियर और ओरछा के किले पर पहली बार एक हॉलीवुड फिल्म की शूटिंग होने वाली है। बेल्जियम की फिल्म निर्माता कंपनी कोरसम और मुंबई की नील मुद्रा एंटरटेनमेंट फिल्म सिंगुलरिटी का निर्माण कर रहे हैं। इसमें हॉलीवुड के अभिनेता जोश हार्टनेट और अभिनेत्री ट्रेसी उल्मा के साथ ही बॉलीवुड अभिनेत्री बिपाशा बसु, अभिनेता अभय देओल, अतुल कुलकर्णी और मिलिंद सोमण भी दिखाई देंगे। इसके अलावा प्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक पंकज कपूर भी फिल्म मौसम की शूटिंग के सिलसिले में ग्वालियर प्रवास कर चुके हैं। फिल्म मौसम एक रोमांटिक फिल्म है जिसमें पंकज कपूर के बेटे शाहिद कपूर मुख्य अभिनेता हैं। शाहिद ग्वालियर एयरवेज स्टेशन से फाइटर प्लेन उड़ाते नजर आएंगे।

खैर, ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश ने अभी-अभी कुछ जादू चलाया है जो बॉलीवुड इस ओर दौड़ पड़ा है। पहले भी प्रदेश में कई फिल्मों की शूटिंग होती रही है। ग्वालियर के चम्बल और जबलपुर के भेड़ाघाट सहित अन्य जगहों पर कुछेक प्रसिद्ध फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। यहां रोमांचित और प्रसन्न होने की बात सिर्फ इतनी-सी नहीं है कि फिल्मों में हमारा प्रदेश दिखेगा। बल्कि प्रसन्नता का कारण यह है कि यह सिलसिला यूं ही चल निकला तो निश्चित ही प्रदेश के राजस्व में बढ़ोतरी होगी। जिसका लाभ प्रदेश की जनता को मिलेगा। इससे पर्यटकों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि होगी। प्रदेश के थियेटर कलाकारों को कुछ काम भी मिलने की संभावना है। यहां कई प्रतिभावान कलाकार हैं, जिन्हें बस मंच की दरकार है। प्रदेश ने बॉलीवुड को कई दिग्गज कलाकार दिए भी हैं। जिनमें संगीतकारों की लम्बी सूची तो है ही, अभिनेता, निर्देशक भी शामिल हैं। प्रसन्नता की एक खबर यह भी है कि निर्देशक प्रकाश झा ने आरक्षण के लिए भोपाल व प्रदेश के कई थियेटर कलाकारों का चयन किया है। जिनमें ग्वालियर के स्केटिंग कोच अरविंद दीक्षित का नाम भी शामिल है। हे प्रभु! यह सिलसिला यूं ही चलता रहे, बल्कि रफ्तार पकड़ ले।

युवा हैं भारत की धमनियां


युवा हैं भारत की धमनियां

मुरारी गुप्ता
भारत सरकार ने स्वामी विवेकानंद की एक सौ पचासवीं जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का फैसला किया है। विवेकानंद की जयंती का अर्थ महज आयोजन या उत्सव की औपचारिकता नहीं है। इसका अर्थ है युवाओं का उत्सव। युवाओं के सुप्त विचारों में अग्नि के तेज सी उत्तेजना पैदा करने का उत्सव। मानसिक दरिद्रता से छुटकारा पाने का उत्सव। राष्ट्र को विश्वगुरू यानी ताकतवर बनाने का संकल्प लेने का उत्सव। क्या हम भारतीय युवा स्वामीजी के उन बहुतेरे स्वप्नों में से कुछ स्वप्नों में अपनी चरित्र भूमिका निभा सकते हैं। क्या हम भारतीय युवा अपने जीवन की वास्तविक भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। हर सवाल अपना जबाव मांगता है।

इसमें कोई शक नहीं है कि युवाओं में अतुल बल है। उनके सोचने और विचारने की क्षमता असीमित है। और पिछले कई सालों से तो हिंदुस्तानी युवा ने पूरी दुनिया में अपनी क्षमता का लोहा मनवाया ही है। स्वामीजी युवाओं के मस्तिष्क को चारों दिशाओं में खुला रखने के पक्षधर थे, मगर किसी ऐसे विचार का संक्रमण जो हमारी मनःशक्ति को हीन कर दे, निश्चित रूप से उन्हें पसंद न था। इसकी वजह ये कि वे भारतीय मनीषा को दुर्बलता से कोसों दूर ले जाना चाहते थे। इन तथ्यों का उन्हें उस वक्त भी आभास था, जब पश्चिम की अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिए आज की तरह प्रचार माध्यम नहीं थे। षढयंत्रकारियों के पास ज्यादा हथियार नहीं थे।

स्वामीजी पश्चिम के विरोधी थे, ऐसा तो बिलकुल नहीं है। वे उनकी उद्योगशीलता के कायल थे। मगर क्या आज के हालात में वे भारतीय युवाओं को पश्चिम की अपसंस्कृति के अंधानुकरण को उचित मानते। ये बड़ा सवाल है। हम स्वामीजी के युवा क्या पश्चिम से आयातित अपसंस्कृति के खिलाफ उठकर लड़ने का माद्दा नहीं रखते। पश्चिम के कथित प्रेम दिवस के पीछे का षड्यंत्र कहीं न कहीं भारत की पुरातन सामाजिक ढांचे को तोड़ने की एक गहरी साजिश जैसा प्रतीत होता है। डा. भीमराम अंबेडकर ने ईसाई मिशनरियों के मतांतरण के संदर्भ में कहा था कि मतांतरण का अर्थ सिर्फ एक धर्म से दूसरा धर्म अपनाना ही नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रांतरण है। बिलकुल वैसे ही आयातित और विध्वंशकारी कथित आधुनिकता भारत के सामाजिक ताने-बाने में अपना जाल बुन सकती है। शुरुआत में भले ही ये हानीकारक प्रतीत नहीं हो, मगर समाज की रीढ़ के अवचेतन मन में धीरे-धीरे जमा इसके तत्व तो अपना प्रभाव छोड़ेंगे ही। आज नहीं तो कल।

फिलहाल भले ही समाज के कथित बुद्धिजीवी ये कहकर इन बातों पर ज्यादा चर्चा नहीं करे कि हम किसी को रोक तो नहीं सकते, या फिर हर किसी को आजादी है या फिर इस तरह की दकियानूसी बातों का कोई मतलब नहीं। मगर जब वक्त बहुत बीत चुका होगा, आने वाली पीढ़ियां हमसे अपनी विरासत का हिसाब मांगेगी, तो उन्हें क्या कहकर संतुष्ट करिएगा।

व्यवसाय की होड़ ने मीडिया की नैतिकता का गला घोंट दिया है। उसकी आत्मा को लालच की जीभ ने लपेट रखा है। हालांकि उसकी स्याही अभी सूखी नहीं है। रंग जरूर फीका पड़ गया है। पत्रकारिता में काम कर रहा युवा खून चाहे तो हालात बदल सकता है। वे चाहे तो समृद्ध सनातन समाज के उन्नत नैतिक मूल्यों में अपनी स्याही की आहूति दे सकते हैं। जरूरत, नौका की दिशा बदलने की है, किनारे खुद-ब-खुद नजदीक आ जाएंगे।

कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां और कुछ अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषित कथित सेवा संगठन अलग-अलग और शांत तरीकों से राष्ट्र के सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करने में जुटे हैं। उन संगठनों पर अंगुली उठाना कोई आसान बात नहीं है। भ्रष्टाचार प्रशासनिक गलियों और कूंचों में गंदगी की तरह फैला-पसरा पड़ा है। राजनीति में नीति को संभालने के लिए कोई तैयार नहीं है। भारतीय समाज की धमनियों में धड़कते नैतिकता के रक्त की राहें पाश्चात्य की गंदगी ने रोक ली है। इन तमाम नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भारतीय युवा का अग्नितेज अभी शांत नहीं हुआ है। उसके तेज में परशुराम के फरसे जैसी धार और योगेश्वर कृष्ण के सुदर्शन चक्र जैसी तीव्रता अभी जिंदा है। भले ही वक्त की रेत ने उसे ढांप दिया हो।

देश के बहुत से युवा और युवा संगठन इस दिशा में बहुत सकारात्मक ढंग से काम भी कर रहे हैं। गौरवमय अतीत की नींव पर वे वर्तमान और भविष्य के उन्नत भवन खड़ा करने में जुटे हैं। इसलिए निराश होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। भारत जैसे सनातन राष्ट्र का जीवन कोई पचास-सौ वर्षों का होता नहीं है। यह सनातन राष्ट्र है। इसलिए किसी के लिए ये कल्पना करना कि कुछ षढयंत्रों या सांस्कृतिक प्रदूषण से इस राष्ट्र की आत्मा दूषित हो जाएगी, एकदम बेमानी है। हर युग की तरह इस युग में भी राष्ट्र के इस भार को युवाओं के कंधों की जरूरत है। स्वामीजी भी तो मजबूत स्नायु और लोहे जैसी मांसपेशियों वाले भारतीय युवा की कल्पना करते थे।

भारत को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए विवेकानंद ने युवाओं के माध्यम से सपने देखे थे। क्या उनके सपनों को वर्तमान युवा के आंखों में बसाने और उन्हें साकार करने का वक्त नहीं आ गया है। कई शहरों, कस्बों, गांवों और स्कूल तथा महाविद्यालयों में विभिन्न युवा संघ किशोर और युवा पीढ़ी को सही दिशा देने के लिए विभिन्न रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। क्या हम उन्हें अपना नैतिक, लैखिक, पारिश्रमिक और वैचारिक सहयोग नहीं दे सकते। विचार हमें करना है। क्योंकि आने वाली पीढ़ियों को जबाव भी हमें ही देना होगा।

(लेखक आकाशवाणी, ईटानगर में समाचार संपादक हैं)

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के ध्वजवाहकः पं. मदनमोहन मालवीय



लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। संपर्कः अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र) मोबाइलः 098935-98888यह हिंदी पत्रकारिता का सौभाग्य ही है कि देश के युगपुरूषों ने अपना महत्वपूर्ण समय और योगदान इसे दिया है। आजादी के आंदोलन के लगभग सभी महत्वपूर्ण नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से अपना संदेश लोगों तक पहुंचाया और अंग्रेजी दासता के विरूद्ध एक कारगर हथियार के रूप में पत्रकारिता का इस्तेमाल किया। इसीलिए इस दौर की पत्रकारिता सत्ता और व्यवस्था की चारण न बनकर उसपर हल्ला बोलने वाली और सामाजिक जागृति का वाहक बनी। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय से लेकर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, गणेशशंकर विद्यार्थी, अजीमुल्ला खान, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे सबने पत्रकारिता के माध्यम से अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने का काम किया। ऐसे ही नायकों में एक बड़ा नाम है पं. मदनमोहन मालवीय का, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जो मूल्य स्थापित किए वे आज भी हमें राह दिखाते हैं। उस दौर की पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्रवाद ही था। जिसमें भारतीय समाज को जगाने और झकझोरने की शक्ति निहित थी। इस दौर के संपादकों ने अपनी लेखनी से जो इतिहास रचा वह एक ऐसी प्रेरणा के रूप में सामने है कि आज की पत्रकारिता बहुत बौनी नजर आती है। उस दौर के संपादक सिर्फ कलम धिसने वाले कलमकार नहीं, अपने समय के नायक और प्रवक्ता भी थे। समाज जीवन में उनकी उपस्थिति एक सार्थक हस्तक्षेप करती थी। मालवीय जी इसी दौर के नायक हैं। वे शिक्षाविद् हैं,सामाजिक कार्यकर्ता हैं, स्वतंत्रता सेनानी हैं, श्रेष्ठ वक्ता हैं, लेखक हैं, कुशल पत्रकार और संपादक भी हैं। ऐसे बहुविध प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यूं ही महामना की संज्ञा नहीं दी। मालवीय जी की पत्रकारिता उनके जीवन का एक ऐसा उजला पक्ष है जिसकी चर्चा प्रायः नहीं हो पाती क्योंकि उनके जीवन के अन्य स्वरूप इतने विराट हैं कि इस ओर आलोचकों का ध्यान ही नहीं जाता। किंतु उनकी यह संपादकीय प्रतिभा भी साधारण नहीं थी।

देश के अत्यंत महत्वपूर्ण अखबार हिंदोस्थान का संपादक होने के नाते उन्होंने जो काम किए वे आज भी प्रेरणा का कारण हैं। हिंदोस्थान एक ऐसा पत्र था जिसकी शुरूआत लंदन से राजा रामपाल सिंह ने की थी। वे बेहद स्वतंत्रचेता और अपनी ही तरह के इंसान थे। लंदन में रहते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं की ओर अंग्रेजी सरकार का ध्यानाकर्षण करने लिए इस पत्र की शुरूआत की। साथ ही यह पत्र प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम भी कर रहा था। कुछ समय बाद राजा रामपाल सिंह स्वयं कालाकांकर आकर रहने लगे और हिंदोस्थान का प्रकाशन भी कालाकांकर से होने लगा। कालाकांकर, उप्र के प्रतापगढ़ जिले में स्थित एक रियासत है। यहां हनुमत प्रेस की स्थापना करके राजा साहब ने इस पत्र का प्रकाशन जारी रखा। कालाकांकर एक गांव सरीखा ही था और यहां सुविधाएं बहुत कम थीं। ऐसे स्थान से अखबार का प्रकाशन एक मुश्किल काम था। बावजूद इसके अनेक महत्वपूर्ण संपादक इस अखबार से जुड़े। जिनमें मालवीय जी का नाम बहुत खास है। राजा साहब की संपादकों को तलाश करने की शैली अद्भुत थी। पं. मदनमोहन मालवीय का सन 1886 की कोलकाता कांग्रेस में एक बहुत ही ओजस्वी व्याख्यान हुआ। इसमें उन्होंने अपने अंग्रेजी भाषा में दिए व्याख्यान में कहा- “ एक राष्ट्र की आत्मा का हनन और उसके जीवन को नष्ट करने से अधिक और कोई अपराध नहीं हो सकता। हमारा देश इसके लिए ब्रिटिश सरकार को कभी क्षमा नहीं कर सकता कि उसने एक वीर जाति को भेड़-बकरियों की तरह डरपोक बना दिया है।” इस व्याख्यान से राजा रामपाल सिंह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मालवीय जी से आग्रह किया कि वे उनके अखबार का संपादन स्वीकार करें। मालवीय जी ने उनकी बात तो मान ली किंतु उनसे दो शर्तें भी रखीं। पहला यह कि राजा साहब कभी भी नशे की हालत में उनको नहीं बुलाएंगें और दूसरा संपादन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगें। यह दरअसल एक स्वाभिमानी संपादक ही कर सकता है। पत्रकारिता की आजादी पर आज जिस तरह के हस्तक्षेप हो रहे है और संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों खतरे में हैं, मालवीय जी की ये शर्तें हमें संपादक का असली कद बताती हैं। राजा साहब ने दोनों शर्तें स्वीकार कर लीं। मालवीय जी के कुशल संपादन में हिंदोस्थान राष्ट्र की वाणी बन गया। उसे उनकी प्रखर लेखनी ने एक राष्ट्रवादी पत्र के रूप में देश में स्थापित कर दिया।

हिंदी पत्रकारिता का यह समय एक उज्जवल अतीत है। मालवीय जी ने ही पहली बार इस पत्र के माध्यम से लेखकों के पारिश्रमिक के सवाल को उठाया। उनके नेतृत्व में ही पहली बार विकास और गांवों की खबरों को देने का सिलसिला प्रारंभ हुआ। गांवों की खबरों और विकास के सवालों पर मालवीय जी स्वयं सप्ताह में एक लेख जरूर लिखते थे। जिसमें ग्राम्य जीवन की समस्याओं का उल्लेख होता था। गांवों के माध्यम से ही राष्ट्र को खड़ा किया जा सकता है इस सिद्धांत में उनकी आस्था थी। वे पत्रकारिता के सब प्रकार के कामों में दक्ष थे। मालवीय जी की संपादकीय नीति का मूल लक्ष्य उस दौर के तमाम राष्ट्रवादी नेताओं की तरह भारत मां को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना ही था। उनकी नजर में स्वराज्य और राष्ट्रभाषा के सवाल सबसे ऊपर थे। भाषा के सवाल पर वे हमेशा हिंदी के साथ खड़े दिखते हैं और स्वभाषा के माध्यम से ही देश की उन्नति देखते थे। भाषा के सवाल पर वे दुरूह भाषा के पक्ष में न थे। अंग्रेजी और संस्कृत पर अधिकार होने के बावजूद वे हिंदी को संस्कृतनिष्ट बनाए जाने को गलत मानते थे।मालवीय जी स्वयं लिखते हैं- “ भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि हम स्वच्छ भाषा लिखें।पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएं। ऐसा यत्न हो कि जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह हिंदी भाषा में लिखा जाए। जब भाषा में शब्द न मिलें तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए। ” अपनी सहज भाषा और उसके प्रयोगों के कारण हिंदोस्थान जनप्रिय पत्र बन गया जिसका श्रेय उसके संपादक मालवीय जी को जाता है।

अपनी संपादकीय नीति के मामले में उन्हें समझौते स्वीकार नहीं थे। वे इस हद तक आग्रही थे कि अपनी नौकरी भी उन्होंने राजा रामपाल सिंह द्वारा उन्हें नशे की हालत में बुलाने के कारण छोड़ दी । संपादक के स्वाभिमान का यह उदाहरण आज के दौर में दुर्लभ है। वे सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जो अपनी इन्हीं स्वाभिमानी प्रवृत्तियों के चलते प्रेरित करता है। एक बार किसी संपादकीय सहयोगी ने संपादकीय नीति के विरूद्ध अखबार में कुछ लिख दिया। मालवीय जी उस समय मिर्जापुर में थे। जब वह टिप्पणी मालवीय जी ने पढ़ी तो संबंधित सहयोगी को लिखा- “ हमें खेद है कि हमारी अनुपस्थिति में ऐसी टिप्पणी छापी गयी। कोई चिंता नहीं, हम अपनी टिप्पणी कर दोष मिटा देंगें।” अपने तीन सालों के संपादन काल में उन्होंने जिस तरह की मिसाल कायम की वह एक इतिहास है। जिस पर हिंदी पत्रकारिता गर्व कर सकती है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर संपादक नाम की संस्था के प्रभावहीन हो जाने का खतरा मंडरा रहा है, स्वभाषा के स्थान पर हिंग्लिश को स्थापित करने की कोशिशों पर जोर है, संपादक स्वयं का स्वाभिमान भूलकर बाजार और कारपोरेट के पुरजे की तरह संचालित हो रहे हैं- ऐसे कठिन समय में मालवीय जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

Sunday, 13 February 2011

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ब्लडप्रेशर में ना करें सेक्स


सेक्स के समय बॉडी के प्रायवेट पार्ट्स को भी ज्यादा रक्त की जरूरत होती है इससे हार्टबीट तथा ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है। इस समय ब्लडप्रेशर बढ़कर 150 मिलीमीटर मरकरी तक पहुँच सकता है। यदि पहले से ही ब्लडप्रेशर बढ़ा है तो यह 180 मिलीमीटर मरकरी के स्तर तक पहुँचता है। यदि उच्च रक्तचाप यानी हाई ब्लडप्रेशर के मरीज ब्लडप्रेशर पर प्रभावी नियंत्रण रखे बिना सेक्स करते हैं तो ब्लडप्रेशर खतरनाक स्तर तक बढ़कर एंजाइना,हार्ट अटैक व पेरेलीसिस की संभावना बढ़ा देता है।
हृदय से धमनियों में निरंतर ब्लड सर्कूलेशन होता रहता है। ऊतकों, कोशिकाओं को पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए धमनियों में रक्त दबाव होता है। स्वस्थ वयस्क व्यक्ति में हृदय के संकुचन के समय सिस्टोलिक प्रेशर 100 से 140 मिलीमीटर मरकरी और हृदय जब संकुचित नहीं होता, तब डायस्टोलिक प्रेशर 60 से 90 मिलीमीटर मरकरी होता है।

ब्लडप्रेशर हमेशा एक जैसा नहीं रहता यह बदलता रहता है। सोते समय कम हो जाता है, जबकि मानसिक तनाव, गुस्सा, चिंता, भोजन के बाद, शारीरिक श्रम, व्यायाम तथा सहवास के समय बढ़ जाता है। आराम करने से पुनः सामान्य स्तर पर आ जाता है। यदि किसी व्यक्ति का ब्लडप्रेशर लगातार सीमा से ज्यादा रहता है तो यह दशा उच्च रक्तचाप यानी हाई ब्लडप्रेशर कहलाती है।

हाई ब्लडप्रेशर बहुत ही सामान्य समस्या है। आधुनिक तनावयुक्त जीवनशैली, खानपान तनाव, भागदौड़ में मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अनुमान है कि वयस्कों में करीब 10-12 प्रतिशत व्यक्ति तो इसी समस्या से ग्रस्त हैं। ऐसे मरीजों में रोग की प्रारंभिक दशा में कोई विशेष समस्याएँ नहीं होती। हाई ब्लडप्रेशर के कारण ज्यादा शक्ति से कार्य करना पड़ता है, इस कारण हृदय का आकार बढ़ जाता है। इसी वजह से हार्ट फेल्योर, एंजाइनर, हार्टअटैक आदि की संभावना बढ़ जाती है। हाई ब्लडप्रेशर के कारण शरीर के अनेक अंग जैसे गुर्दे, आँखें, क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। पक्षाघात होने की संभावना हो सकती है। मरीजों में यदि रक्तचाप पर प्रभावी नियंत्रण नहीं किया गया तो अनेक यौन समस्याएँ भी हो सकती हैं।

सेक्स के समय शरीर में कैलोरी की जरूरत बढ़ जाती है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए हृदय गति धीरे-धीरे 70-80 से बढ़कर 100-120 प्रति मिनट हो जाती है, जो चरमोत्कर्ष के समय 130-160 प्रति मिनट तक पहुँच जाती है। सेक्स की समाप्ति के बाद धीरे-धीरे सामान्य हो जाती है। हाई ब्लडप्रेशर के मरीजों को पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्य से सेक्स रिलेशन नहीं बनाने चाहिए। ऐसा करने पर उत्तेजना और तनाव से ब्लडप्रेशर खतरनाक स्तर तक बढ़ सकता है।

मरीज, रोग का निदान होने पर भी चिंतित व तनावग्रस्त रहते हैं, जिस कारण सेक्स पावर भी प्रभावित होती है। उच्च रक्तचाप के मरीज कामक्रीड़ा के समय शीघ्र थक जाते हैं। साँस भी फूलने लगती है, गंभीर रूप से हार्ट फेलेयर हो सकता है, एंजाइना व हार्ट अटैक भी हो सकता है।

हाई ब्लडप्रेशर का प्रमुख कारण दीर्घकालीन मानसिक तनाव होता है, जिस के कारण यौन संबंधों से अरुचि, शीघ्रपतन या नपुंसकता की समस्या हो सकती है। साथ ही हाई ब्लडप्रेशर के अनेक मरीज रोग का पता लगाने पर भी चिंतित होकर तनावग्रस्त रहते हैं, जिस कारण सेक्स पावर प्रभावित होती है।

यदि आप उच्च रक्तचाप के मरीज हैं तो अपनी आदतें बदलें, भोजन में परहेज करें। जीवन सुव्यवस्थित करें, तनावमुक्त रहें। दुर्व्यसनों को त्यागें। उच्च रक्तचाप पर नियंत्रण रखें। यदि रक्तचाप ज्यादा है तो यौन संबंधों से बचें जब तक कि यह सामान्य न हो जाए। आप उच्च रक्तचाप की दवाओं का सेवन करते हैं और यौन क्षमता में कमी हो जाती है तो दवाएँ लेना बंद न करें। चिकित्सक को समस्या बताएँ। वह दवा की मात्रा घटा देगा या दवाएँ बदल देगा, जिससे यौन समस्याओं से बचाव हो सकेगा।

उच्च रक्तचाप मे मरीज जिन्हें मदिरा, तंबाकू, सिगरेट आदि की लत है को इन चीजों का त्यागकर संतुलित भोजन करना चाहिए जिस में वसा और कैलोरी की मात्रा नियंत्रित हो। नमक इस्तेमाल न करें। यदि वजन ज्यादा है तो वजन कम करें। नियमित व्यायाम करें और तनावमुक्त हलके उच्च रक्तचाप पर नियंत्रण किया जा सकता है पर उच्च रक्तचाप के अनेक मरीजों को रोग पर नियंत्रण के लिए दवाओं का सेवन करना पड़ता है।

उच्च रक्तचाप की अनेक औषधियाँ मरीजों की यौन क्षमता को प्रभावित करती हैं। इसके उपचार के लिए प्रयुक्त इंड्राल (प्रोपेनानाल), मिथाइल डोपर (एंडोमेंट) तथा मूत्र की मात्रा बढ़ाने की औषधियाँ हैं, जो यौन क्षमता घटाती हैं जबकि कुछ दवाएँ जैसे काप्टोप्रिल यौन क्षमता प्रभावित नहीं करतीं।